चेतना के रंग
जो बिखरे है यही कही
औस की बूंदो में,
मौसम के सौन्दर्य में,
फूलो की महक में,
शाखाओं से उन्मन पत्तियों में,
निर्लज दोपहरी में,
चाँद के शीतल प्रकाश में,
उच्छल बन, बादल की तरह
बिखर गया हूं मैं
भावनाओ की अभिवक्ति को
प्रेम के सबधों में,
पिरोने लगा हूं में,
अधूरेपन को खुद से दूर ले जाने में,
चंचल अंचल मन भी वैरागी बन बैठा है,
हर एक छण में जैसे ,
प्रकाश के उजलेपन में,
उत्सव मना रही है ज़िन्दगी
उन संजीदा लम्हो की जुस्तजू में,
मुग्ध है …
वो चेतना के रंग
जो घर कर गये है ह्रदय में मेरे
झील की तरह शांत, उदासीन,
उन्ही रंगों में,
में अगर में रह जाता,
तो प्रेम का उत्सव कहाँ से पाता॥
प्रवीण कुमार
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