दूरी कहाँ है!
मैं यहाँ रहूँ, वहाँ रहूँ, क्या फ़र्क पड़ता है?
फ़र्क पड़ता है कर्म का
स्वभाव का, मेलमिलाप का, अपेक्षा का,
रिश्तों का, संवाद का
मिठास का , जज्बात का
और फर्क पड़ता है तेरे ना होने का ,
तेरे एहसास से दूर जाने का,
और तेरी खूसबू को ना जी पाने का ,
वरना क्या फ़र्क पड़ता है...
कभी लिखने जो बैठता हूं,
वो लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं,
शायद उन्हें किसी हसरत की तलाश है,
जो गूंज रही है यही कही बनकर एक आवाज,
वरना दूरी कहा देती है, जुदाई का होसला,
जैसे निर्मम पहाड़ो की पुकार सुनकर ,
पंछी भी छोड़ देते है अपना घोसलाI
वरना क्या फर्क पड़ता है….
अब कहाँ जाये ऐसी अवस्था में,
उन यादो की मीठी सलवटों को छोड़कर,
जिनकी रचनाओ की आवाज, बनती थी कविताये,
जहाँ बिन बुने,गज़ले इनायत हो जाती है,
मौसम की परवाह किये बगेर हो जाती है पूरी,
और सांसो को थाम लेती थी वो अल्हड सी दुरी I
वरना क्या फर्क पड़ता है….
शायद मेरा होना ही,
उसी बसंत की तरह,
सुगंधित…है
पंछी की तरह,
उन्मुक्त… है
जो छोड़ जाती है,आँखों में नमी,
और चेहरे पर, एक सुन्हेरी हँसी ,
वर्ना क्या फर्क पड़ता है…. मैं यहाँ रहूँ……
प्रवीण कुमार
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY