ज़िंदगी में वो मुकाम ना आया
हरेक लम्हे में मैंने खुद को पाया
में जला उस जुगनू की तरह
खुद को रोशन भी ना कर पाया
ज़िंदगी में वो मुकाम ना आया
लोग कहते रहे जुबानी अपनी
बस में खुद को सहता आया
कभी खुद को समझा नहीं पर
उनको भी समझा ना पाया
ज़िंदगी में वो मुकाम ना आया
खामोश लबों की जुस्तजू में
मोहब्बत के नग्में पिरोते आया
मदमस्त मौसम की सुर्ख फिज़ाओ में
खुशी के पल समेटे लाया
ज़िंदगी में वो मुकाम ना आया
समय का छूटा फिर घर कहा आया
खुद से बिछड़ा पर खुद से मिल ना पाया
वो कहते रहे ठहरो, पर में चल भी ना पाया
ज़िंदगी में वो मुकाम ना आया
जज्बात सहमे कुछ ऐसे
जब आगोस में खुद के आया
ख्वाब देखे ता उम्र पर बुन ना पाया
अदावत लम्हो से करते आया
ज़िंदगी में वो मुकाम ना आया
हरेक लम्हे में मैंने खुद को पाया
प्रवीण कुमार
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