बूजी रिटायर्ड हैं मगर पेंशन पाते हैं
आँखे पथरा गयी हैं
क्योंकि उनमें बसे सारे सपने मर चुके हैं
और अब बस मरने के लिए
जिये जाते हैं
बाबूजी रिटायर्ड है मगर पेंशन पाते हैं
उनके चेहरे की झुर्रियों में
उभरे हैं गुजरे इतिहास के कुछ खट्टे-मीठे पल
और वे यदा कदा उन पलों में खो जाते हैं
इक ज़रा सा बच्चा हो जाते हैं
मन मचलने लगता है
जी ललचने लगता है
कुछ चटपटा नमकीन मीठा खाने के लिए लपकते हैं
लेकिन उसी पल बुढ़ापा फिर लौट आता है
जब बेटे और बहू से डाँट खाते हैं
बाबूजी रिटायर्ड हैं मगर पेंशन पाते हैं
तीस दिन के बाद धोती धोया गया है
आज फिर उनकी आँखों को भिगोया गया है
अब उन्हें दिन तारीख महीना याद नहीं रहता
पेंशन लाने का दिन है शायद
आज के दिन बेटा थोड़ा मीठा बोलता है
बहू की आवाज़ में भी जरा नरमी होती है
मोटर साइकिल पर बिठाकर रामलगना
उनको हवा में उड़ाते हुए बैंक ले जाता है
बैंक से सटे पीपल के पेड़ के नीचे बिठा देता है
और जैसे कि बच्चे हांे चुपचाप बैठे रहने की नसीहत जमा देता है
सरकारी अधिकारियों के लिए
बाबूजी जीने का प्रमाण पत्रा हंै बस
रामलगना पेंशन पाकर अपनी जेब गर्म कर लेता है
और हमेशा की तरह उन्हें नीम के पेड़ के नीचे लाकर पटक देता है
बाबूजी बड़ी दीनता से कहते हैं
सौ दो सौ हमें भी दे देते तो अच्छा होता
रामलगना भौंहे चढ़ाकर कहता है
आपको रुपये की का जरुरत है भला
पहनने खाने की कोई कमी है क्या
और बस उसकी इसी बात से
तिलमिला जाते हैं छटपटा जाते हैं
बाबूजी रिटायर्ड हैं मगर पेंशन पाते हैं
अब ना कोई दुनिया ना संसार
ना कोई बंधू ना कोई यार
सर्द रातों में बुझे अलाव को तापते हैं
तारों को गिन-गिन के सारी रात काटते हैं
कभी कभी रामलगना की माई तारांे के
झुरमुट में आकर मुस्करा देती है
उनकी आँखों की पुतलियों में नमी उगा देती है
इस सूने सर्द रात का सिर्फ एक ही सच्चा साथी है
बूढ़ा झबरा, जाडे़ से जब कूँ कूँ करता है
तो उससे आदमियों की तरह बातंे करते हैं
क्यों रे झबरा जाड़ा लग रहा है का
चिंता ना कर अब उमर कट गयी है
बस चार दिन के मेहमान हैं हम और तुम
फिर काहे का दुख काहे का जाड़ा
बेचारे के मन में जो भी होता है
झबरा से कह जाते हैं
बाबूजी रिटायर्ड हैं मगर पेंशन पाते हैं
और एक दिन नीलगगन में चाँद तारों के बीच आकर
रामलगना की माई ने अपनी बाहें फैलाकर कहा
अब आ भी जाओ ना
और कितने दिन रहोगे
और कितना दुख सहोगे
बाबूजी अपनी पुरानी जीर्ण हुई
चादर को फेंक देते हैं
और किसी पखेरु की भाँति
उड़ते हुए चले जाते हैं रामलगना के माई के पास
भोर होते ही घर में कोहराम मच जाता है
बहू ज़ोर ज़ोर से रो रो कर पूरा आसमान सर पे उठा लेती है
और इस तरह गाँव-टोले को उनके मरने की सूचना देती है
रामलगना भी थोड़ा आँसू बहा लेता है
रोने की रस्म है सो निभा लेता है
सोचता है अठ्ठाइस तारीख तो हो ही गयी थी
चार दिन के बाद मरते तो उनका क्या बिगड़ जाता
कम से कम पेंशन तो उठा लेता
रामलगन ये बात क्यों भूल जाते हैं
एक दिन बूढ़े तो सभी हो जाते हैं
तुम्हारी तो कोई सरकारी नौकरी भी नहीं है
बाबूजी रिटायर्ड थे
मगर पेंशन पाते थे
प्रेम सागर सिंह
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