प्रेम तो है नहीं कहीं
शरीर है बस
बाक़ी जो है वो
लगाव है जो जरूरतों का पुलिंदा भर है
प्रेम
बातों में लड़ता-झगड़ता
हार कर वापस दौड़ जाता है
काले घने
जंगलों में सो जाता है
तब तक
जब तक शरीर जागता रहता है
तड़पता रहता है, भूखा रहता है
प्यास से चीख़ता और
लालायित रहता है स्पर्श के लिए
शरीर ही
आधार है कुछ रिश्तों का या
यूँ कहें की क़रीब होने का
रिश्ता……….कैसा रिश्ता ?
कोई रिश्ता नहीं
शरीर के आगे
कोई रिश्ता नहीं टिका
गर्म, भूख से
तपे शरीर की महक
उसकी हल्की सी
ताह ही काफ़ी है रिश्तों के
भस्म हो जाने के लिए
उसकी मर्यादाओं को ख़ाक
करने के लिए
कमज़ोर
तन्हा अहसासों की भटकती
नंगी रातों को हर
शरीर अपनी आग़ोश में लेना चाहता है
दबोचना चाहता है,
मसलना चाहता है, भोगना चाहता है
सोना चाहता है ……..
मन, भावनाएं,
एहसास, संवेदनाएं और
इच्छाएं दबे पाँव
ऐसी कमज़ोर रातों में
डर कर, छुप कर भाग खड़ी होती है
कहीं इनका
ज़बरन अपहरण न हो जाये
कोई वासना से लिप्त
शरीर इनका बलात्कार न कर ले
कहीं कुचल न दें
इनके मर्म, इनकी आत्मा को
इसलिए
प्रेम और प्रेम सम्बंधित
भावनाएं, तमन्नाएँ
एहसास और अनोखी छुअन सभी
प्रेम की अदायें है, शोखियां है
शरीर से अलग़
आत्मा की देन है जो
अहसासों से अहसासों का मिलन है
इसमें शरीर कहीं नहीं है
जहाँ शरीर है
वहाँ सिर्फ शरीर है
कोई रिश्ता नहीं, कोई उम्र का ठींकरा नहीं
कोई अपमान नहीं, कोई उलंघन,
कोई मर्यादा नहीं
यह शरीर
सब पर भारी है
सबके आगे जीता है, सबसे जीता है
शरीर
सिर्फ सोना जानता है
उसके कोई नियम, कोई सीमा नहीं
है तो बस
भूख सिर्फ ………भूख!!! ………
प्रियंका सिंह
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