भारतीय समाज में जाति व्यवस्था पीढ़ी-दर-पीढि़ से चलती आ रही है। समाज में सामाजिक व्यवस्था अव्यवस्थित होना शुरू होता है तब उसको बनाये रखना साहित्यकारों का मूल लक्ष्य होता है। साहित्यकारों का जन्म समाज में होने के कारण वह अपने साहित्य में सामाजिक कुरीतियों को याने सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि सभी पहलुओं को कृतिबद्ध करना शुरू करता है।
इसी प्रकार आधुनिक साहित्य के संदर्भ में दलित साहित्य इन सभी लक्ष्यों को लेकर ही जन्म लिया है। दलित लोग अपने जीवन में भोगी हुई घटनाओं को शब्दबद्ध करने लगे हैं। दलित लोगों का इतिहास देखने पर पता चलता है कि वाल्मीकी जैसे महान् कवि, अंबेडकर जैसे संविधान शिल्पि, पुले जैसे धार्मिक नेता आदि लोगों का योगदान इस संसार के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है। दलित साहित्य लिखनेवालों में दो पक्ष हैं- एक है दलित साहित्यकार और दूसरा गैर दलित साहित्यकार। दलित साहित्यकार गैर दलित साहित्यकारों को नहीं मान रहे हैं। इसका मूल कारण यह है कि दलित साहित्यकार का विचार है गैर दलित साहित्यकार दलित लोगों के जीवन को दूर से महसूस करते हैं। लेकिन दलित साहित्यकार अपने जीवन में भोगे हुए निजी घटनाओं को शब्दबद्ध करते हैं। इस प्रकार की सच्चाई ज्यादा होने के कारण गैर दलितकारों को कम मान्यता दे रहे हैं। दूसरे पक्ष देखे तो सवर्ण लोग दलित साहित्यकारों से लिखित साहित्य को न मानते हुए उस साहित्य को गलीज साहित्य कह कर श्रेष्ठ साहित्य के पक्ष से दूर रखने का डोंग रचा रहे हैं।
‘दलित’ शब्द के अर्थ के संदर्भ में दो मत प्रचलित हैं। प्रथम अर्थ संकुचित है, दूसरा व्यापक अर्थ मेंं प्रयुक्त है। संकुचित अर्थ धार्मिक ग्रंथ, सामाजिक व्यवस्था आदि से उत्पन्न है, जिसके अंतर्गत चतुर्थ-वर्ण (शूद्र) में आनेवाली जातियों को आधार बताया जाता है। जबकी व्यापक अर्थ में ये उन सभी के लिए प्रयुक्त शब्द है, जिन्हें किसी न किसी प्रकार से दबाया गया हो, फिर चाहे ये किसी भी जाति, वर्ण या संप्रदाय से जुडे हो। ‘दलित’ शब्द का अर्थ है- जिसका दलन और दमन हुआ है, जिसे दबाया गया है, उत्पीडित, शोषीत, सताया हुआ, गिराया हुआ, उपेक्षित, घृणित, रौंदा हुआ, मसला हुआ, कुचला हुआ, विनिष्ट, मर्दित, पक्त-हिम्मत है तो साहित्य वंचित आदि। बृहत हिंदी कोश में ‘दलित’ शब्द का अर्थ इस प्रकार दिया गया है। जैसे- “रौंदा, कुचला हुआ पढक्रांत-वर्ग, हिंदुओं में वे शुद्र जिन्हें अन्य जातियों के समान अधिकार प्राप्त नहीं है।”1 इसी प्रकार कैवल भारती का मानना है कि ‘दलित’ वह है जिस पर अस्प्रश्यता का नियम लागू किया गया है। जिसे कठोर और गंदे कार्य करने के लिए बाध्य किया गया और जिस पर अछूतों ने सामाजिक निर्योग्यताओं की संहिता लागू की, वही और वही दलित है, और उसके अंतर्गत वही जातियाँ आती हैं, जिन्हें अनुसूचित जातियाँ कहा जाता है।”2
हिंदी दलित साहित्य के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार डा.सुशीला टाकभौरे ने अपनी कहानियों के मध्यम से दलितों की सामजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा शैक्षिक चित्रण के साथ उच्चवर्ग के प्रति अपने विद्रोह को स्पष्ट किया है। उनकी अधिकतर कहानियाँ अंबेड़करी विचारधरा पर आधारित हैं। उनकी रचनाओं में शोषकों से ही नहीं बल्कि अन्याय के विरूद्ध आत्मकथात्मक और मनोविश्लेषणात्मक हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में अपने विचार, जीवन की घटनाएँ और अनुभवों को प्रस्तुत किया है। नारी मन के अंतद्र्वंद्व का चित्रण भी इन कहानियों का मुख्य विषय रहा है। उनकी कहानियों में समाज में व्याप्त जतिभेद, सामाजिक असमानता, छुआ-छूत की भावना और दलित समाज के पीडित व्यक्ति द्वारा भोगे हुए अनुभवों का कथन है।
ड्ढ जाति-भेद की समस्या :
आज के इस युग में भी समाज से जातिभेद की भावना पूरी तरह से नहीं मिट गयी है। समाज में जातिवाद के बंधन काफी सुदृढ दिखाई दे रहा है। सुशीला जी की कहानियों में भी इस जातिभेद की समस्या देख सकते हैं। जाति-पाँति या वर्णव्यवस्था को जन्म के आधार पर नहीं स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य मात्र की एक ही जाति है। गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य ऊँच-नीच होता है। अत: मनुष्य को जीवन में अपने कर्म अच्छे बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
‘संघर्ष’ कहानी में 14 साल का शंकर बहुत शरारती होने के साथ घर में सभी को तंग करता है। बाहर के बच्चे भी इसके शरारती से तंग होकर इसे छेड़ते हैं। गाँव के कुछ लोग इसे अछूत मानते हैं। ये उसे अच्छा नहीं लगता। शंकर के मित्रों के कार्य से क्रोधित हो कर वह भी जानबूझकर मित्रों के घर के अंदर गुसता है और सवर्ण (मित्रों को) कड़को से बदला लेकर वह अपनी टाग अड़ाकर उसे गिरा देता है। स्कूल में अध्यापक उसे अछूत होने के कारण परेशान करते हैं। कारण वश वह पढ़ाई में मन लगाता है। फिर भी अन्य बच्चे शंकर के नानी सुअर पालने के कारण इसकी मजाक उड़ाते हैं। इन सभी बाह शंकर के मन में जब पढ़कर कुछ कर दिखाने की बात आती है तो अंत में वह जादा अंक लेकर दसवीं कक्षा पास करता है।
ड्ढ शिक्षा के क्षेत्र में शोषण :
किसी समाज की प्रगतिशीलता वहाँ की शिक्षा पर आधृत होती है। सामाजिक प्रक्रिया में शिक्षा का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। समाज में जिस प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था होगी, उसी प्रकर के समाज का निर्माण भी होगा। शताब्दियों से दलितों के पिछड़ेपन का कारण उनका अशिक्षितत होना है। आज भी दलितों के बीच में शिक्षा की कमी है। शिक्षा के अभाव के कारण वे न कभी अपने अधिकारों को समझ सकें, न उनकी प्राप्ति के लिए आवाज़ उठा सकें। शोषण का आधार क्या है यह जाने बिना संघर्ष नहीं किया जा सकता। यह ज्ञान शिक्षा से ही प्राप्त हो सकता है।
‘नई राह की खोज’ कहानी में रामचंद्र अनपढ़ है। वह अपने बेटे लालचंद को अंग्रेजी कानवेंट स्कूल में भेजता है। मगर घर में सभी अनपढ़ होने के कारण उसके आगे की पढ़ाई नहीं हो पाता है। परिणामस्वरूप उसे पाँचवीं कक्षा से फिर कारपोरेशन की हिंदी प्राइमरी स्कूल में दाखिल किया जाता है। उसे हिंदी अच्छी तरह से न आने के कारण वह स्कूल से भागने लगता है। अत: वह मैट्रीक भी नहीं कर पाता। घर में सभी यह कहते हैं- “आरे आगे चलकर तो बाप का ही काम करना है। क्या जरूरत है अंग्रेजी पढ़ाई-लिखाई की। साँ बाबू की नौकरी हम लोगों के नसीब में कहाँ होती है?”3 दलित समाज के लोगों को यह जानना जरूरी है कि जीवन की लड़ाई को लड़ने के लिए शिक्षा ही सबसे ज्यादा मारक और शक्तिशाली अस्त्र है। ये लोग अपने बच्चों के बारे में गंभीरता से सोचते नहीं हैं। अत: बच्चे होशियार और बुद्धिमान होकर भी कुछ नहीं कर पाते। घर का वातावरण और अर्थाभाव उनकी पढ़ाई अधुरी रह जाने का और एक कारण है। अत: उनमें यह संदेश देना जरूरी है कि शिक्षा के माध्यम से ही अन्याय और असमानता के खिलाफ संघर्ष कर सकते हैं।
ड्ढ आत्मविश्वास की कमी :
दलित या निम्न वर्गीय समाज के लोगों के मन आत्मविश्वास की कमी में घर कर गई है। हमेशा ये लोग अपने आपको निम्न और हीन मानते हैं। इसीसे इनकी मानसिकता या विचारों में परिवर्तन लाना और उनमें आत्मविश्वास जगाना आवश्यक है।
‘झरोखे’ कहानी में एेसा कहा है कि घर के बड़े लोग अपने बच्चों को बचपन से यह सिखाते हैं कि “हम जाति में छोटे हैं, बड़े उनके घर के भीतर नहीं जा सकते।”4
बचमन में ही एेसे विचार भरने से बच्चों के मन में संकोच का भाव पैदा होती है। एेसे विचार मन में जगाने के बाद व्यक्ति का संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता। इससे उनमें हमेशा संकोच, शर्म, पीछे रहने की भावना, जातिभेद का दु:ख अपमान होने का भय आदि दीन-हीन भाव बना रहता है। जो ताकतवान, बुद्धिमान, सर्वगुण संपन्न होने के बावजूद भी उसमें पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत ही नहीं जगाने देता है। साथ ही अन्याय, शोषण के खिलाफ और डटकर खड़े रहने की हिम्मत भी भरा हुआ होता है। ‘सिलिया’ कहानी में भी सार्वजनिक कुएँ के पानी पीने के कारण मालती को उसकी माता बहुत डाटती है। सवर्ण लोग मालतीे पर यह आरोप लगाते हैं कि उसने रस्सी बाल्टी और कुएँ को छू कर अपवित्र कर दिया है। उसकी माँ मालती को बहुत मारती है। सिलिया यह सब देखती है। परंतु संकोच के कारण वह कुछ भी बोल नहीं पाती है।
ड्ढ आक्रोश का चित्रण :
हर एक व्यक्ति किसी न किसी वक्त बेबसी और लाचारी से अपना आक्रोश व्यक्त करता है। उसके अंदर की पीड़ा बाहर प्रतिक्रिया के रूप में प्रकट होती है। ‘सिलिया’ कहानी में आक्रोश का सुंदर चित्रण हुआ है। युवा नेता सेठी जी विज्ञापन द्वारा शूद्र वर्ण की लड़की से विवाह करने का विचार प्रकट करता है तो सिलिया सेठी जी की ढोÄंग पर अपना आक्रोश व्यक्त करती है। और सोचती है कि- “हम क्या इतने लाचार हैं? आत्मसम्मान रहित हैं? हमारा अपना भी तो कुछ अहंभाव है, उन्हें हमारी जरूरत है, हमको उनकी जरूरत नहीं, हम उनके भरोसे क्यों रहेङ्गअपना सम्मान हम खुद बढ़ाएँगे।”5 यहाँ सिलिया सेठी से शादी करके दया का पात्र नहीं बनना चाहती। सिलिया अपना सम्मान और गौरव को बनाए रखना वह आवश्यक मानती है।
ड्ढ धार्मिक आड़ंबरों में विश्वास :
दलित समाज के लोग धर्म में विश्वास रखते हैं। वे अपनी उन्नति की गति और भाग्य भगवान के भरोसे छोड़ देते हैं। दलित लोगों को यह सोचना जरूरी है कि जब तक अपनी प्रगति के विषय में खुद नहीं सोचेंगे तब तक कोई भी भगवान और कोई भी मंदिर का लाभ नहीं होगा। ‘व्रत और व्रती’ कहानी में धर्मपाल एक अभावग्रस्त युवक है, जो मेहनत मजदूरी करके अपने जीवन बिताता है। वह अपने कष्टों को दूर करने के लिए जन्माष्ठमी के दिन भगवान श्री कृष्ण का व्रत करता है। वह दिनभर उपवास करता है। परंतु दोपहर से उसकी तबीयत बिगड़ने लगती है। वह रात को किसी तरह से पूजा करके खाना खाता है। मगर ज्यादा खाने से सब उबल पड़ता है। उसे रात भर खाली पेट से सोना पड़ता है। अंत में वह समझलेता है- “इस भागती मशीनि जिंदगी में अपने पेट की आग बुझाने का इंतजाम भी स्वयं ही करना है।”6 वह दृढ़ संकल्प करता है कि “किसी भी देवता के नाम से व्रत और उपवास नहीं करेगा और न ही किसी पूजा के पचड़े में पडूंगा। न किसी से दया की भीख मागूँगा और न ही किसी से पनाह पाहूँगा।”7
ड्ढ छुआ-छूत की समस्या :
प्राचीन काल से ही दलितों को अस्प्रश्य या अछूत माना गया है। दलितों को सार्वजनिक कुएँ, तालाब से पानी लेना भी मना है, जबकि उस तालाब से जानवर तक पानी पीते थे। सवर्णों के घर के अंदर तो दूर, उनके मुहल्लों में चलने के लिए भी पाबंदी थी। भारतीय संविधान में अस्प्रश्यता दूर करने का नियम बना है। लेकिन आज भी हमारे देश में छुआ-छूत की भावना कायम है।
सुशीलाजी ‘जन्म दिन’ कहानी में कहती है- “आजकल हर जघन्य बीमारी का इलाज संभव है। एेसी बिमारी से पीडि़त या संसर्गपूर्ण रोग से पीडि़त रोगियों को भी लोग अपने अलक से अलग या बस्तियों से बारह नहीं रखते हैं। मगर अस्पृश्यता एेसी बिमारी है जिसका अभी तक संभव नहीं हो सका है। न साधु, संतों की वाणी से, न समाज सुधारकों के प्रयत्नों से, न अंग्रेजों की मानवतावादी तर्कपूर्ण से देश की स्वतंत्रता से और न ही संविधान से।”8 यहाँ कहानिकार अस्पृश्यता को एक जघन्य बिमारी की तरह मानती है। उनके अनुसार आज की प्रगतिशीलता भी इसमें कोई परिवर्तन नहीं होने दिया है।
ड्ढ नारी शोषण की समस्या :
‘मेरा समाज’ कहानी में भी नारी शोषन का चित्रण देख सकते हैं। उस समाज में लड़कियों की अवस्था एेसा है कि आर्थिक अभाव के कारण वे आगे नहीं पढ़ सकती है। शादी होने के बाद परिवार का खर्च उठाने के लिए उसको भी नौकरी करनी पड़ती है। कुछ लोग एेसे भी हैं कि वे सुबह आठ बजे तक बिस्तर में पड़े रहते हैं और नौकरी के लिए अपनी पत्नी और बच्चों को भेज देते हैं। इस प्रकार की नारी शोषण को लेकर लेखिका एेसे बताती है- “बहु नौकरी भी करती थी, घर का पूरा काम-खाना पकाना, खिलाना, मांजना, धोना सब करके अपने बाल-बच्चों को संभलालने की जिम्मेदारी भी निभाती है। इतन सब करके भी अधिकांश बहुओं को रात दिन पति की मार, सास की गालियाँ और ननदों के ताने ही मिलते रहते थे।”9 घर में झगड़ा होने पर घर का पुरूष अपना गुस्सा अपनी पत्नी पर ही निकालते हैं। और बेचरी पत्नी हमेशा पीटती रहती है। इस प्रकार के नारी शोषण के साथ लड़कियों की अवस्था एेसी होती है कि वह “रोते-रोते घर का पूरा काम करती, खाना बनाती, सबको खिलाती कभी थोड़ा स्वयं भी खा लेती नहीं तो भूखी ही रह जाती है। वह अपने अच्छे दिनों की प्रतीक्षा इस तरह करती थी कि एक दो साल में शायद उसकी स्थिति बदला या एक-दो बच्चे हो जाने पर उसे न्याय मिलेगा या बच्चे बड़े होने पर उसके दिन फिरेंगे या फिर बहुएँ आने के बाद स्थितियाँ बदल जाएगी- इसी प्रतीक्षा में पूरा जीवन निकल जाता था।”10
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि डा.सुशीला टाकभौरे जी ने अपनी कहानी साहित्य के माध्यम से दलित चेतना के विविध पहलुओं का चित्रण बड़े मार्मिक ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। इस प्रकार दलित संघर्ष का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करने में वे पूर्ण रूप से सफल हुई हैं।
संदर्भ ग्रंथ :
1. बृहत हिंदी कोश ट्ट पृ सं ट्ट 510
2. कैवल भारती ट्ट युद्धरत आम आदमी ट्ट पृ सं ट्ट 41
3. डा.सुशीला टाकभौरे ‘नई राह की खोज’ ट्ट 82
4. डा. सुशीला टाकभौरे ट्ट झरोंखे ट्ट पृ सं - 17
5. डा. सुशीला टाकभौरे ट्ट सिलियो ट्ट पृ सं -66
6. डा. सुशीला टाकभौरे ट्ट व्रर्ते और व्रती ट्ट पृ सं - 53
7. डा. सुशीला टाकभौरे ट्ट व्रर्ते और व्रती - 53
8. डा. सुशीला टाकभौरे ट्ट जन्म दिन ट्ट 28
9. डा. सुशीला टाकभौरे ट्ट मेरा समाज ट्ट पृ सं ट्ट 30
10. डा. सुशीला टाकभौरे ट्ट मेरा समाज ट्ट पृ सं ट्ट 30-31
प्रो.संगमेश ब.नानन्नवर
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY