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डा.रामकुमार वर्मा के काव्य

 

साहित्य मानव के विचार तथा अनुभूतियों को व्यक्त करने का एक सशक्त माद्यम है। साहित्य का सिंहावलोकन करने से ज्ञात होता है कि काव्य या कविता के रूप में ही मानव की अभिव्यक्ति अधिक हुई है। परंतु आधुनिककाल में कविता के साथ-साथ नाटक, एकांकी, कहानी, उपन्यास आदि रूपों में भी मानव ने अपने अनुभवों को व्यक्त किया है। आधुनिक युग में एेसे कए महान् साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी को हर क्षेत्र में चलाकर अपनी मेधाशक्ति तथा प्रतिभा का परिचय दिया है। डा.रामकुमार वर्मा एक एेसे ही महान् प्रतिभावाले साहित्यकार हैं। वर्मा जी कवि, नाटककार, एकांकीकार, इतिहासकार होने के साथ-साथ एक अच्छे आलोचक भी हैं। “मयूरपंखी व्यक्तित्ववाले डा.रामकुमार वर्मा हिंदी साहित्य के इंद्रधनुषी श्रृंगार हैं। उनका काव्य व्यक्तित्व रंग-बिरंगा है।”1
‘एकांकी के जनक डा.रामकुमार वर्मा की लेखन-शैली भारतीय साहित्य-जगत् में एक मानक-स्तर स्थापित कर चुकी है।’2 अपनी जीवन की अनुभवों को अक्षर का रूप देकर पाठकों प्रभावित करनेवाले महान् साहित्यकार हैं। उन्होंने तीन संस्मरण लिखे हैं-‘हिमहास’, ‘संस्मरणों के सुमन’ और ‘स्मृति के अंकुर’।
‘हिमहास’ में डा.रामकुमार वर्मा जी ने मई सन् 1635 के काश्मीर यात्रा के द्वारा हुए अनुभवों को व्यक्त करने का प्रयास किया है। जैसे-जैसे वे हिमालय की ओर बढ़ते गए उनको अनुभव होता है कि किसी कोमलांगी की ओर बढ़ रहा हूँ। वहाँ के हिमशैल, उपत्यकाएँ, बादल, पुष्प-राशी, वृक्ष-राजि को देखकर वर्मा जी के हृदय में हजारों भावनाएँ और कल्पनाएँ उत्पन्न होती हैं। जिस वेग से उनके हृदय में भावनाएँ, कल्पनाएँ उठ रही थी, उस वेग से उनकी भाषा नहीं चल रही थी। वे कहते हैं “संसार भर में प्राकृतिक सौंदर्य के दृष्टिकोण से हमारे देश में काश्मीर की जो मनोरमता है, वह बहुत कम देशों को प्राप्त है। सर्वोच्च गिरी-माला उसके क्रोड़ से निकलनेवाली पवित्र और गुणकारी जल से परिपूर्ण सरिताएँ, समीपवर्ती उपजाऊ भूमि, अनेक प्रकार के सुगंधित पुष्प, चिनार और सफेद पेड़, ललित लतिकाएँ, विविध ऋतुओं की नृत्यमयी शोभा इस भू-भाग की विशेषता है। इसीलिए महाकवि निराला ने लिखा-
भारती जय विजय करे,
कनक शस्य कमल धरे।
मुकुट शुभ्र हिम तुषार,
प्राण प्रणव ओंकार
ध्वनित दिशाएँ उदार
शत मुख शत रव मुखरे।3
इस प्रकार भारत देश प्रकृति सौंदर्य से संपन्न है। शरीर के अवयवों में मुख की शोभा विशेष होती है, उसी प्रकार भारत देश के मस्तक की शोभा भी अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक है। काश्मीर ही हमारे देश का मस्तक है।
समुद्र तल से लगभग 7 से 10 हजार फीट ऊपर पचासी हजार वर्गमील में धरती का यह स्वर्ग फैला हुआ है। आकाशगंगा की भाँति इसके ठीक मद्य में झेलम नदी प्रत्येक ऋतु में प्रवाहशीला है। निहारिकाओं की भाँति अनेक झीलें, लहरें और झरने स्थान-स्थान पर अपने ज्योति मंडल का निर्माण कर रहे हैं। ‘वानिहल’ एक सिंह द्वार की भाँति नौ हजार फीट ऊँचा मस्तक उठाये लोगों की प्रतीक्षा करते हुए मिलेगा। वहाँ प्रवेश करते ही एक विशाल साम्राज्य को देखकर मुग्ध हो जाते हैं। वहाँ मुस्कुराती हुई कलिकाएँ और हँसते हुएँ फूल हलकी हवा की तरंगों में अप्सराओं और गंधर्वों की भाँति नृत्य करते हुए दिखाई देते हैं। अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे दृश्य कल-कल नाद करते हुए निर्झर, किनारे झूमती हुई सुगंधी से परिपूर्ण लताएँ, इंद्र के नंदन कानन को लज्जित करती हुई ज्ञात होती हैं। इस स्वर्ग को ज्योति मंडल से घेरनेवाला श्वेत हिम से आच्छादित शैल ही शरीर है, जिसकी विशाल बाहों में यह सारा सौंदर्य केंद्रित हो गया है।
डा.रामकुमार वर्मा ने ‘हिमहास’ में हिमालय के सौंदर्य को, वहाँ के हिम शैली, रंग-बी-रंगे फूल, पेड़-पौदे, निर्झर, पहाड़ आदि का वर्णन बहुत ही सुंदरता के साथ किया है। वहाँ के प्रत्येक सौंदर्य का वर्णन किया है। जैसे-
ड्ढ पुण्य-ज्योति- वर्मा जी ने हिमालय को पुण्य-ज्योति के समान मानते हैं। वे कल्पना करते हैं कि हिमालय नीलाकाश के शरीर से साँस की तरह निकलकर पृथ्वी में जीवन डाल रही है। “हिम से ध्वल गिरी-श्रृंगों पर यह भक्तों के पवित्र मानस में बसी हुई पुण्य-ज्योति के समान है।”4
ड्ढ काश्मीर के पुष्प- यहाँ काश्मीर के पुष्पराशी के सौंदर्य का वर्णन किया गया है। हिमालय के पहाड़ों के पास के जमीन (उपत्यका) पर हर कहीं फूल ही फूल बिखरे हुए हैं। प्रत्येक प्रदेश में फूलों की राशी बिखरी हुई है। वर्मा जी को आश्चर्य होता है कि यहाँ इतने फूल क्यों हैं? उनको लगता है कि प्रकृति ने इतने सारे फूलों को मेरे सामने रखकर कह रहा है- “मनुष्य! विश्वात्मा कितना महान् है! कितना शक्तिशाली है! कितना सुंदर है! तू इतने पुष्पों से उसकी पूजा कर!”5 काश्मीर को गुलाबहार कहा गया है। काश्मीर को फूलों के राज्य के रूप में वर्णन किया गया है।
ड्ढ जल-प्रपात- वर्माजी ने हिमालय के जल प्रपात का सुंदर वर्णन किया है। जल कितनी शिलाओं के ऊपर-निचे, दाएँ-बाएँ होकर निकलकर गिर रहा है। यह दृश्य अत्यंत आकर्षक है। वर्माजी उस जल-प्रपात को देखते हैं तो उनके मन में विचार आता है कि जल-प्रपात के समान संसार में पड़े हुए पत्थर के समान व्यक्ति के चारों ओर से समय का अविराम प्रवाह जा रहा है। जल के प्रपात के संघर्ष से जिस तरह पत्थर छोटा होता जाता है, उसी प्रकार समय के प्रवाह से मनुष्य का जीवन भी धीरे-धीरे घटता जाता है। वर्माजी सोचते हैं कि मानव जीवन को स्पर्श करता हुआ समय का प्रवाह भी एक भीषण जल-प्रपात है? यहाँ समय के साथ जल-प्रपात की तुलना सटीक लगता है।
ड्ढ फिरोजपुरी नाला- यहाँ पर्वत के अंतराल में बहता हुआ नाले का वर्णन किया है। वह नाला अपने तेज गति से पर्वत के हृदय को हिला देना चाहता है। वर्मा जी को आभास होता है कि इसका प्रयास वैसा ही है जैसा मेरी साँस का जो सारे शरीर में उग्र रूप से प्रवाहित है। यहाँ प्रकृति में मानवीकरण किया गया है।
ड्ढ पहलगाम- पहलगाम पहाड़ी के नीचे रहनेवाली छोटी-सी बस्ती है। उस बस्ती को देखकर वर्मा जी अनुभव करते हैं कि कोई माँ अपनी गोद में अपने नन्हें से शिशु को रखे हुए प्रेम से उसका मुख निहार रही है। उनके मन में संदेह पैदा होता है कि आखिर पहलगाम कब तक शिशु बनकर अपनी माँ की गोद में रहेगा? अनंतकाल से वह एेसा ही है। क्या उसका शैशव अनंत है? लेखक भगवान से प्रार्थना करते हैं कि उनका यौवन भी अनंत यौवन कर दो। यहाँ प्रकृति के विस्मय, अद्भूत शक्ति को देख सकते हैं। साथ में मानव की आशा, इच्छाओं को भी।
ड्ढ बेचारा पुष्प- यहाँ हिमालय के सुंदर, मोहक पुष्पों का वर्णन मिलता है। बहुत दिनों तक उस वन में कोई नहीं गये थे। वन के फूल रोज खिलकर मुरझा जाते थे। लेकिन उनकी सुंदरता, मोहकता को देखकर, उनका वर्णन करनेवाले कोई नहीं थे। इसलिए वे फूल निराश होकर संद्या के समय अपने समस्त सौरभ को फेंककर मुरझा जाते थे। एक दिन लेखक वहाँ गये। उन्हें देखते ही वहाँ का फूल उत्साह से और भी खिल उठा। उसकी सुगंध अधिक मादक हुआ। लेखक को लगता है कि वह फूल उन्हें कह रहा है- “अह, आओ मेरे प्राण, कितने दिनों से तुम्हारी प्रतीक्षा हो रही है! अब कहीं तुम आये हो! देखो! मुझे देखो!”6 लेखक उस फूल को होंठों से लगाया, चुमा और उसके सुगंध को साँस लेते हुए छोड़ दिया। तब वह फूल किसी हृदय के टुकड़े की भाँति लतिका के वक्ष पर रखा हुआ था। वह अपने वृत पर उसी प्रकार हिल रहा था, जैसे प्रेमावेश में किसी तरूणी के होंठ। दूसरे दिन आकर देखते हैं तो वह फूल मुरझाया हुआ था। लेखक को वह दृश्य देखकर आश्चर्य होता है। तब उनको आभास होता है कि शायद उनके चुंबन के उल्लास को वह फूल सहन नहीं कर सका। नह्ना-सा रेशम की पतली धारियों से भी सूक्ष्म केसर की रेखा से बना हुआ उसका हृदय मेरे चुंबन की मादक भावना के बोझ को कैसे सहन कर सका होगा?
ड्ढ निर्झर- लेखक हिमालय के ‘निर्झर’ का वर्णन करते हुए कल्पना करते हैं- “हे प्रभु! यह निर्झर, निर्झर नहीं मेरी कविता बह रही है। इस पवित्र निर्झर के जल से तुम्हारे चरण कमल धोकर इस निर्झर को संसार को पवित्र करने के लिए प्रवाहित कर दूंगा।”7 लेखक यहाँ प्रकृति और निर्झर को माँ-बेटे संबंध के बारे में बताया है। लेखक ने यहाँ प्रकृति का मानवीकरण किया है। जीवन में आनेवाली कठिनाईयोंं से मानव का जीवन निर्झर के तरह पवित्र और उज्ज्वल हो जायेगा।
ड्ढ बादल- डा. रामकुमार वर्मा जी ने बादलों का वर्णन कई रूपों में किया है। बादल निराश प्रेमी की भाँति आकाश के न जाने कितने स्थानों में धूम आया था। पर किसी ने भी आश्रय नहीं दिया। अंत में वह विद्यूत् की तीक्ष्ण धारा से आत्मघात कर पृथ्वी पर रोते हुए गिर पड़ता है। लेखक ने यहाँ बादल की तुलना निराश प्रेमी से की है। लेखक आगे कहते हैं कि बादल संसार की पीड़ा, वेदना को देखकर एक बार काँप उठता है। वह उस वेदना की आग को अपनी करूणा की अश्रुधारा से शांत करना चाहता है। बादल अपना अस्तित्व खोकर संसार को सुख देना चाहता है। कहना का तात्पर्य है कि व्यक्ति अपने वैयक्तिक स्वार्थ-साधना, अहं भावना को त्याग कर मानवीयता को महत्व देता है तो यह संसार स्वर्ग बनेगा।
ड्ढ शैल-श्रृंग- हिमालय के शैल-श्रृंग को प्रेम समाधि कहा है। श्रृंग संसार के वीभत्स-कलाप देखकर वनांत में सिकुड़ कर बैठी हुई है। अपने हृदय में वेदना का अंधकार लिया हुआ है। यह पर्वत शांत है, मौन होकर भी कितना महान् है।
ड्ढ हिमहास- लेखक ने यहाँ शैल-श्रृंग पर हिम को हास का वर्णन करते हुए कहते हैं यह कितना मनोहर है। जैसे बादलों ने दृढ़ होकर पर्वत का आलिंगन किया है। प्रकृति ने अपने शिशु पर्वत को बार-बार चुमा है। ये हिम खंड उसी चुंबन के चिन्ह हैं। हिम को मानव जीवन के साथ तुलना की गई है। सफल जीवन जिस तरह विपत्तियों पर रखा रहता है ठीक उसी तरह यह हिम काली शिलाओं पर पड़ा हुआ है। हिमालय को देखकर लेखक को आभास होता है कि यह हिम राशि नहीं है। यह पर्वत के जीवन का उज्वल स्वप्न है या उसकी साकार अनुभूति है। वह अपना सर्वश्रेष्ठ भाग ऊपर कर आकाश से मुक्ति माँग रहा है और भस्म से विभूषित होकर समाधि मग्न है।
भाषा-शैली-
भाषा भावाभिव्यक्ति का साधन है। डा.रामकुमार वर्मा जी ने सरल, सुबोध भाषा का प्रयोग किया है। कोमल और मधुर शब्दों का प्रयोग सफलता के साथ हुआ है। प्रकृति चित्रण में भी लेखक की विशेष रूचि दिखाई देती है। प्रकृति को आलंबन, उद्दीपन दोनों रूपों में चित्रित किया है। कुछ स्थलों पर मानवीकरण की शैली भी प्रयुक्त हुई है। उदाहरण के रूप में ‘निर्झर’ में प्रकृति और निर्झर के बीच के संवाद को देख सकते हैं-
“प्रकृति ने निर्झर से कहा- वत्स! लौटोगे नहीं? तुम शिशु हो, बहुत दूर चले गए। अब तुम्हें निर्जन वन में डर लगेगा, गिरते हुए तुम्हें चोट लगेगी!
निर्झर ने हँस कर कहा- माँ! जो मधुर संगीत तुमने मुझे सिखलाया है, उसके गाने से डर नहीं लगता!
प्रकृति ने कठोर होकर कहा- और चोट भी नहीं लगती?
निर्झर ने कहा- जितनी चोट लगती है माँ, उससे दूना उत्साह मिलता है।
प्रकृति ने झुझँला कर निर्झर के मार्ग में एक बड़ा-सा पत्थर रख दिया। निर्झर पत्थर से ठोकर खा कर और भी उज्ज्वल हो उठा।”8
‘हिमहास’ संस्मरण के संदर्भ में धीरेंद्र वर्मा का अभिप्राय उल्लेखनीय है- “’हिमहास’ वास्तव में गद्य-काव्य की श्रेणी में रखे जानेवाली एक उत्कृष्ठतम कृति है, जिसमें कुशल कवि-चितेरे ने शब्दों के डोरों में कोमल कल्पना के मोती चुन-चुन कर पिरोए हैं और उनकी सहायता से आकर्षक चित्र-चित्रित किए हैं।”9
निष्कर्ष- इस तरह हम देखते हैं कि डा.रामकुमार वर्मा जी ने अपने हिमालय-यात्रा के सुंदर अनुभूतियों को ‘हिमहास’ संस्मरण में अभिव्यक्त किया है। हिमालय के पुण्य-ज्योति, काश्मीर के फूल, जल-प्रपात, निर्झर आदि का मनोज्ञ रूप से वर्णन किया है। संस्मरन को पढ़ते समय एेसा अनुभव होता है कि साक्षात् हिमालय और उसका सौंदर्य ही हमारे आँखों के सामने है। डा.वर्मा का यह संस्मरण उच्छी कोटी का है।
संदर्भ ग्रंथ सूची-
1. डा.प्रभा भट्ट ट्ट डा.रामकुमार वर्मा के काव्य का मूल्यांकन ट्ट पृ सं - 11
2. डा.रामकुमार वर्मा ट्ट संस्मरणों के सुमन - भूमिका सेङ्ग
3. डा.रामकुमार वर्मा ट्ट हिमहास - भूमिका सेङ्ग
4. डा.रामकुमार वर्मा ट्ट हिमहास ट्ट पृ सं ट्ट 1
5. डा.रामकुमार वर्मा ट्ट हिमहास ट्ट पृ सं ट्ट 2-3
6. डा.रामकुमार वर्मा ट्ट हिमहास ट्ट पृ सं ट्ट 11
7. डा.रामकुमार वर्मा ट्ट हिमहास ट्ट पृ सं ट्ट 31
8. डा.रामकुमार वर्मा ट्ट हिमहास ट्ट पृ सं ट्ट 32
9. डा.रामकुमार वर्मा ट्ट हिमहास ट्ट पृ सं ट्ट 35

 

 

 

 

प्रो.संगमेश ब.नानन्नवर

 

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