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जीवन मूल्य व साहित्य

 


साहित्यकार अपने युग का प्रतिनिधि होता है। वह अपने युग की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिस्थितियों से प्रभावित होता है। अत: उसकी कृतियों में युगीन परिस्थितियों की स्पष्ट छाप रहती है। सन् 1960-1965 के बाद की लिखी गई कहानियों में अत्यधिक उग्रता और निर्ममता और यथार्थ की क्रूरता की प्रवृतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। ये कहानियाँ प्राय: उन लेखकों की हैं, जो स्वाधीन भारत में जन्में और बड़े हुए तथा जिन्हें देखने को मिला स्वतंत्र भारत का क्रूर यथार्थ, स्वार्थ परायण व्यवस्था, भ्रष्टाचार, समाज की विषम भयावह विसंगतियाँ, बेकारी, असुरक्षा। इन साहित्यकारों ने परंपरागत रूढि़-संप्रदायों का विरोध किया और जीवन के नये मान्यताओं पर बल दिया। मन्नु भंडारी, मंजुल भगत, मृणाल पांडेय, राजी सेठ, उषा प्रियंवदा, सुधा अरोड़ा आदि महिला लेखिकायें इस दृष्टि से प्रमुख कही जा सकती हैं। इनसे जुड़ते हुए परंतु थोड़ी बहुत भिन्नता के साथ उभरकर आया हुआ एक नाम है मधु कांकरिया, जिन्होंने नये विषयों को लेकर अपने कथा-साहित्य का सृजन किया।
‘मूल्य’ शब्द संस्कृत की ‘मूल’ धातु में ‘यत्’ प्रत्यय लगने से बना है, जिसका अर्थ कीमत, मजदूरी आदि होता है। वस्तुत: ‘मूल्य’ अंग्रेजी के ‘ळग्न्व्ज्ल्’ शब्द का पर्याय है। ‘ळग्न्व्ज्’ शब्द लैटिन भाषा के ‘ळग्न्ज्श्ज्’ से बना है, जिसका अर्थ अच्छा, सुंदर (हज्न्न्) होता है। इसकी सामान्य परिभाषा यह बनती है कि ‘जो कुछ भी इच्छित है, वही मूल्य है। इसी कारण कुछ विद्वान ‘ळग्न्व्ज्ल्’ शब्द के लिए संस्कृत के ‘इष्ट’ शब्द को समानार्थी रूप में प्रयुक्त करना चाहते हैं। मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्री ‘सहज ज्ञान और इच्छा’ को आधार बनाकर ही मूल्य शब्द की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। वे लक्ष्य, आदर्श और प्रतिमान की संजीवित समग्राकृति की मनोग्रंथी को ही मूल्य कहते हैं। उनके अनुसार अभिवृत्तियों का आंतरिक स्वरूप ही मूल्य है।1 महादेवी वर्मा जी ने मूल्य को परिभाषित करते हुए लिखा है कि “वास्तव में थोडे से सिद्धांत में जो मनुष्य को मनुष्य बनाते हैं, हम उन्हीं को जीवनमूल्य कहते हैं। ‘सिद्धांत’ शब्द मानवोचित आदर्शात्मक कृत्यों की ओर संकेत करता है। अत: सदाचरण तथा सद्गुण स्वयं ही मूल्य को निरूपित एवं उद्घाटित कर देते हैं। गुण स्वयं में मूल्यवान होने से मूल्य शब्द का ही समानार्थक बन जाता है।”2
जीवन मूल्य मानव जीवन को अधिक से अधिक व्यवस्थित बनाते हैं। मूल्य मानव जीवन में कई प्रकार से कार्यान्वित होते हैं। जैसे- वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक,धार्मिक आदि। इन जीवन मूल्यों से मानव को सुख, शांति मिलती है। इस प्रकार के जीवन मूल्यों को हम मधु कांकरिया के कहानियों में हम देख सकते हैं।
§ वैयक्तिक जीवन मूल्य :
वैयक्तिक जीवन मूल्य के अंतर्गत व्यक्ति प्रधान होता है। व्यक्ति की भावनाएँ, ईच्छाएँ प्रमुख होती हैं। यह मूल्य व्यक्ति केंद्रित होता है। ‘और अंत में ईशु’ कहानी का नायक विश्वजीत समाज में हो रहे अन्याय, अत्याचा को रोकने के लिए नक्सलवादी बनता है। लेकिन नक्सलवाद में भी उसे सफ़लता नहीं मिलती। इसी निराशा में वह ड्रग एडिक्ट बनता है। वह ड्रग का इतना आदि होता है कि वह उसके लिए अनिवार्य हो जाता है। ड्रग खरीदने के लिए लोगों से पैसा मांगता है। समाज, धर्म, रूढि़-संप्रदायों से विश्वजीत के वैयक्तिक जीवन पर हुए परिणामों से वह त्रस्त होता है। हिंदू धर्म के प्रति उसके मन घृणा पैदा होती है। इसी समय विश्वजीत ईसा मसिहा के उपदेशों से प्रभावित होकर ईसाइ बनने का निर्णय लेता है। वह कहता है कि “जो संस्कृति गिरे हुओं को उठाती है, उन्हें क्षमा करना जानती है, वह चाहे जिस किसी भी कारण से एेसा करे, मैं उस संस्कृति का सम्मान करता हूँ।”3 एेसे समय में व्यक्ति अपने वैयक्तिक जीवन को महत्व देता है न कि समाज, धर्म को। लेखिका ने यहाँ यह बताना चाहती है कि समाज, धर्म से बड़कर व्यक्ति होता है। व्यक्ति से ही समाज, धर्म का निर्माण हुआ है। व्यक्ति के बिना न समाज है न धर्म।
‘मुहल्ले में’ नामक कहानी में भी लेखिका ने वैयक्तिक जीवन का चित्रण यथार्थ रूप में किया है। इस कहानी का प्रमुख पात्र है डा.योगेश गुप्ता। ये हमेशा अपने नाम डिग्री, ओहदे और लोगों में श्रेष्ठ बनने के बारे में सोचते रहते हैं। उन्हें अपने नाम और डाक्टरी डिग्री पर इतना मोह है कि लेटर बाक्स पर बड़े स्टाईल से अपना नाम लिखवाते हैं और उसे घर के बाहर एेसे लटकाते हैं कि किसी भी कोने से देखने पर दिखायी दे। घर और अस्पताल में अपने लेटर बाक्स को बार-बार देखकर मुस्कुराते हैं। नये मुहल्ले में आने के बाद वहाँ के बड़े-बड़े आकर्षक और आलिशान घरों को देखकर अपने स्थिति पर दु:खी होते हैं। उन्हें लगता है कि “इस देश में तो बुद्धिजीवियों की कुछ भी कद्र नहीं।”4 लेखिका का मानना है कि व्यक्ति अपने नाम, ओहदे को औसत से ज्यादा महत्व देता है तो दु:खी होता है। आधुनिकता के प्रभाव के कारण आज व्यक्ति अंदर से इतना टूटता जा रहा है कि वह अपना आत्मिक सुख, विचारधार, आंतरिक चेतना को भूल रहा है। विदेशी आकर्षणों से प्रभावित होकर अर्थ प्राप्ति को ही सुख मान रहा है।
§ पारिवारिक जीवन मूल्य :
परिवार समाज का एक अंग है। परिवार में ही व्यक्ति का पालन-पोषण होता है। परिवार से ही व्यक्ति को समाज, देश के बारे में ज्ञान प्राप्ति होती है। पारिवारिक जीवन मूल्य के अंतर्गत परिवार को केंद्र में रखा जाता है। परिवार के सदस्यों, उनकी भावनाओं, उनकी समस्याओं पर चिंतन-मनन किया जाता है।
‘कीड़े’ कहानी हिंदी के प्रोफेसर श्रीकांत वर्मा के परिवार से संबंधित है। श्रीकांत अपने बच्चों, पत्नि को सारी सुविधायें देते रहे। सेवा से निवृत्त होने के बाद श्रीकांत को कीड़े का रोग लग जाता है तो बच्चों के साथ पत्नि भी उनका तिरस्कार करती है। व्यक्ति जब तक काम कर के पैसा कमाता है, तब तक परिवार के लोग उसे गौरव, सम्मान देते हैं, उनका आदर करते हैं। निवृत्ति के बाद श्रीकांत को देखने की जिम्मेदारी पत्नि के साथ-साथ बच्चों की थी। लेकिन कोई उनका खयाल नहीं रखता। कहानी के अंत में मयंक, मोहित अपने पिता को घर बुलाने जाते हैं तो पिता कहते हैं- “जीवन पर मेरी राय बदल चुकी है। मैं इन कीड़ों का कृतज्ञ हूँ। जिन्होंने ब्रम्हांड़ की तरह मुझे मृत्यु और संबंधों के कई रूप दिखाए और अंतत: मेरी आत्मा पर लगे अंध-मोह और अज्ञात के कीड़ों को झाड़ दिया है।ङ्गयदी शीघ्र ही कुछ न किया गया तो मनुष्यता को लगे ये कीड़े वह सब कुछ नष्ठ कर देंगे जो शिव है, सुंदर है, पवित्र है और मानवीय है।”5 आधुनिकता के तेज जीवन में बच्चों को माता-पिता का खयाल रखने के लिए समय नहीं मिल रहा है। वे इतने व्यस्त रहते हैं कि खुद के बारे में उनको सोचने के लिए समय नहीं रहता है। अधिक पैसा कमाने के लालच में मनुष्य अपने परिवार, परिवार के सदस्यों की मानसिकता, उनकी भावनाएँ, ईच्छाओं के बारे सोचने के लिए उसके पास न समय है न संयम। विदेशी संस्कृति के प्रभाव से आज कल वृद्धाश्रमों की संख्या दिन-ब-दिन बड़ती जा रही है। संघटित परिवार टूटकर बिखर रहे हैं। वसुदैव कुटुंबकम की भावना मिट रही है। आज माता-पिता अपने बच्चों के लिए बोझ बन गये हैं। वृद्धावस्ता में माता-पिता की सेवा करना बच्चों का कर्तव्य होता है। लेकिन आज के बदलते संदर्भों में इस तरह के आदर्शों के लिए कोई स्थान नहीं है। मनुष्य का जीवन यांत्रिक बन गया है।
‘फैलाव’ कहानी में श्रुति का अपना सुखी परिवार है। अपने परिवार में कुछ बदलाव लाना चाहती है। इसी कारण पति के साथ काम करती है। सेक्स के संबंध में पति-पत्नि के बीच मन्मुटाव पैदा होता है। जब श्रुति घर में रहती थी तब उनके बीच कोई संघर्ष पैदा नहीं हुआ था। आम तौर पर शहरों में पति-पत्नि दोनों काम करते हैं। नारी भी पुरूष के समान काम करती है। श्रुति भी पहले कभी क्षीतिज को उस विषय पर निराश नहीं किया था। क्योंकि उसे सीख मिला था कि “पति को मना करने का मतलब अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मारना। हर रात उन्हें चाहिए कोई ‘मादा’ अगले दिन की ‘किक’ के लिए।”6 लेकिन आजकल बाहर जा कर काम करने के कारण उस विषय में रूचि नहीं लेती। इसी कारण दोनों में जगड़ा होता है। दोनों में अगर एक स्थिति को समझ पाता तो एेसा नहीं होता था। काम के तनाव के कारण पति-पत्नि में इतना संयम नहीं रहता। क्षीतिज, श्रुति की स्थिति को समझ पाता या श्रुति क्षीतिज को समझती तो उनके बीच ये संघर्ष पैदा नहीं होते। पति-पत्नि होने के नाते उनमें ताल-मेत होना चाहिए था।
§ सामाजिक जीवन मूल्य :
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज से ही उसका अस्तित्व निर्माण होता है। समाज में रहने के कारण मनुष्य को सामाजिक नीति-नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। सामाजिक जीवन मूल्य में समाज ही केंद्र बिंदु है। समाज के नीति-नियम, रूढि़-परंपरा आदि को प्रमुखता दी जाती है।
‘दाखिला’ कहानी में शहरों में बच्चों को स्कूल में दाखिला करवाने के लिए माँ-बाप को किस प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है यही दिखाया गया है। बदलते परिस्थितियों के अनुसार शिक्षण पद्धती में भी परिवर्तन आ रहे हैं। विशेष रूप से नगरीय शिक्षण व्यवस्था में बहुत तीर्व गति से बदलाव आ रहे हैं। आधुनिकता के कारण विदेशी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज परिवार बिखर रहे हैं। पति, पत्नि अपने अहम में ही रहते हैं। इसका परिणाम बच्चों पर पड़ रहा है। स्कूल में दाखिला करते वक्त माँ-बाप का होना आवस्यक हो गया है। अगर दोनों में कोई एक नहीं है तो उस बच्चे को स्कूल में दाखिला नहीं मिलता है। विक्रम अपनी माँ को समझाता है कि “इस बार तुम गड़बडी नहीं करना। इंतरव्यूव की रूम में घुसते ही कह देना फादर को पापा हमारे साथ नहीं रहते, नहीं तो पिछले इंतरव्यूव की तरह इस बार भी मेरा नहीं हो पाएगा।”7 समाज में आज यह समस्याँ सामान्य बन गयी है। हमारे पारिवारिक, सामाजिक जीवन मूल्य, आदर्श अपने महत्व को खो रहे हैं।
आदिवासी समाज के भी अपने कुछ रूढि़याँ, परंपराएँ, प्रथायें होती हैं जिनका पालन करना उनके लिए आवश्यक होता है। उनका उल्लंघन करने पर उन्हें समाज से बाहर भी कर दिया जाता है। एेसे ही आदिवासियों से संबंधीत कहानी है ‘शून्य होते हुए’। इस कहानी में भैरों की पुत्री विवाह पूर्व गर्भवती हो जाती है। इस घटना से भैरों बहुत ही चिंतित होता है। अपने सामाजिक मर्यादा से डर कर डा. विजय के पास उसका गर्भपात करने के लिए बिनती करता है। डा. विजय भी भैरों की स्थिति को देखकर गर्भपात करने के लिए तैयार हो जाते हैं। एक जिम्मेदार डाक्टर होने के नाते डाक्टर.विजय को यह काम नहीं करना था। फिर भी वे ये काम करते हैं। इसका कारण यह था कि उस समय भूणहत्या कोई अपराध नहीं था और उसके लिए कोई सजा भी नहीं थी। इसका गलत फायदा धर्माधिकारी उठाते हैं। यहाँ तक की उस समय यह एक व्यापार ही बन गया था।
§ धार्मिक जीवन मूल्य :
मनुष्य के जीवन में धर्म का महत्व अत्यंत अधिक है। धर्म के कारण व्यक्ति में श्रॄद्धा, भय, संस्कार आदि मूल्य समाहित होते हैं। धार्मिक मूल्यों के अंतर्गत धर्म, आत्मा, परमात्मा, मोक्ष आदि व्ािषयों के बारे में विचार-विमर्श किया जाता है।
‘भरी दोपहरी के अंधेरे’ कहानी में विशेष रूप से जैन धर्म के रीइ-रिवाज, जीवन शैली, संप्रदायों की चर्चा की गयी है। जैन सन्यासियों की कथा सुनने के बद उनका जीवन बहुत ही कठिण है एेसा लगता है। उनके कुछ आचर्ण बहुत ही कठीण हैं। निर्वस्त्र रहना, कच्छा पानी पिना, स्त्री से दूर रहना सन्यासी बनना आदि आचरण हर एक की बस की बात नहीं है। आज व्यक्ति सोचता है कि इतनी कठीण साधन करके भगवान को प्राप्त करने के बजाय संसार में रह कर ही सब को मानवीय प्रेम प्रधान करके उस भगवान को हासिल कर सकते हैं। क्योंकि हर धर्म पवित्र मानवीय प्रेम का संदेश देता है। इतने कठीण परिश्रम, त्याग करने पर भी जैन मुनि अपने आपसे संतुष्ठ नहीं हैं। जिस शांती के लिए, सुख के लिए वे संसार से दूर रह रहे हैं वो उनको नहीं मिला है। शिबू का मित्र बेहोश पस्ज़ा था, उसके पाथे से खून बह रहा था। एेसे समय में भी जैन मुनि अपने वे नियम पर अड़े रहे। अनेक मिन्नतों के बाद भी सहायता नहीं करते। सच्चा धर्म वही होता है जो व्यक्ति के कष्ठ में उसको सहारा देता है। क्योंकि व्यक्ति के प्राण से बड़कर संसार में कोई चीज नहीं है। आधुनिक व्यक्ति इतने सारे कष्टों को सहकर अपने संसार से दूर रखकर कोई धर्म को अपनाना पसंद नहीं करता। एेसे अन्य कारणों से व्यक्ति अपने धर्म को त्याग कर दूसरे धर्म को अपना रहा है।
§ समष्ठिगत जीवन मूल्य :
समष्ठिगत जीव मूल्यों में व्यक्ति की वैयक्तिकता या पारिवारिकता को महत्व न देकर समाज, रष्ठ्र, विश्व मानवीयता को महत्व दिया जाता है। मधु कांकरिया के ‘काली पैंट’ कहानी में इसे हम देख सकते हैं।
‘काली पैंट’ कहानी में कर्नल रंजीत मेहरोत्रा के कहानी है। भारत-चीन के युद्ध के समय में लड़ते लड़ते उनका दायाँ पैर पूरी तरह जख्मी हो गया था और उसे मजबूरन काटना पड़ा। अपने भतीजे से मिलने सप्ताह भर के लिए कलकत्ता आये थे। कालेज के लड़के-लड़कियाँ उनके साथ बूरा व्यवहार करते हैं। आज की युवा पिढ़ी में व्यक्ति के स्थितियों, कारणों को जानने तक का संयम नहीं है। आज देश के लिए अपना सबकुछ त्याग करनेवाले सैनिकों को पूर्ण सम्मान नहीं मिल रहा है। उनके धैर्य, साहस पहचान कर प्रोत्साहन देनेवाले नहीं हैं। देश के लिए मर मिठनेवाले सैनिकों की अनेकों समस्याओं का समाधान नहीं मिल रहा है। लेखिका युवा पिढ़ी को बताना चाहती है कि देश, आजाद है तो हम हैं वरना कुछ भी नहीं। सबसे पहले देश आता है, फिर समाज, फिर परिवार उसके बाद व्यक्ति। पर आजकल सबकुछ उल्टा हो रहा है।
निष्कर्श रूप में हम कह सकते हैं कि मधु कांकरिया के कहानियों में व्यक्ति से लेकर समष्ठी तक के विचारों को दर्शाया गया है। व्यक्ति के वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक और समष्ठिगत जीवन मूल्यों का चित्रण करके, जीवन मूल्यों की महत्ता, सार्थकता और बदलते स्थितियों के अनुसार जीवन मूल्यों में हो रहे परिवर्तन को दिखाने का प्रयास लेखिका ने किया है।
संदर्भ ग्रंथ :
1. डा.रमेशचंद्र लवानिया - हिंदी कहानी में जीवन मूल्य पृ सं ट्ट 1
2. डा.अमिता रानी सिंह - रामचरितमानस में जीवन मूल्य - पृ सं - 28
3. मधु कांकरिया - और अंत में ईशु - पृ सं ट्ट- 17
4. मधु कांकरिया - मुहल्ले में - पृ सं ट्ट- 88
5. मधु कांकरिया ट्ट कीड़े ट्ट पृ सं ट्ट 71
6. मधु कांकरिया ट्ट फैलाव - पृ सं ट्ट 71
7. मधु कांकरिया ट्ट दाखिला - पृ सं ट्ट 147

 

 

 

प्रो.संगमेश ब.नानन्नवर

 

 

 

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