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कन्नड लोक-साहित्य---प्रो.संगमेश बी. नानन्नवर

 

लोक साहित्य विद्वानों या आचार्यों द्वारा रचित साहित्य नहीं है। वह जन-साधारण का सहज आत्माभिव्यक्ति है। सर्वसाधारण ग्रामीण व्यक्ति अपने जीवन में अनुभूत अनुभवों के सार को सीधे-साधे शब्दों में अपने ही ढंग से अभिव्यक्त करता है। थके-हारे अपने मन को बहलाने के लिए वह कुछ न कुछ गुनगुनाता रहता है। एेसे ही क्षण में उठी मधुर-भावनाओं ने सरल बोलचाल के शब्दों में सजकर गीतों का रूप ले लिया। इनमें न अलंकारों का बोझ है न क्लिष्ट शब्दों की कर्कशता और न ही दुरूह भावों का भार। एेसे सरल, सुबोध और सहज गीतों को कालांतर में लोक-गीतों की संज्ञा दी गयी। इस साहित्यिक विधा को लक्ष्य करके ही नृपतुंग ने इस प्रकार कहा होगा- “कुरितोददेयुं काव्य प्रयोग परिणत मतिगळ।”1 (काव्य-शास्त्र से अनभिज्ञ रहनेवाले भी काव्य-रचना करने में सिद्ध हस्त हैं।) ‘लोक-साहित्य’ यह शब्द ‘लोक’ और ‘साहित्य’ नामक दो शब्दों से बना है। इसमें ‘लोक’ का अर्थ होता है-‘लोग/संसार’, और ‘साहित्य’ का अर्थ होता है-सबका हित करनेवाला।2
एक पाश्चात्य मानवतावादी ने कहा है कि- “भारत जीवित लोक-कथाओं का संपन्न भंडार है।” यह उक्ति कर्नाटक के लिए भी अक्षरश: लागू होती है। कर्नाटक अपनी लोक-साहित्य-संपत्ति के लिए ही प्रसिद्ध नहीं, अपितु लोक-कलाओं का निधि-निव्रास भी है।3 कर्नाटक की ग्रामीण संस्कृति के अध्ययन से यह पता चलता है कि प्राचीन काल से ही कन्नड जनता में लोकगीतों का प्रचलन रहा। किंतु उस काल के लोक-साहित्य के स्वरूप को निर्धारित करने के लिए कोई ठोस आधार उपलब्ध नहीं है; क्योंकि लोक-साहित्य मैखिक उदगार का प्रचलित एवं प्रसारित साहित्य है। वह ग्रंथबद्ध रचना नहीं होता। वह साहित्य जन-मानस के बीच में ही पनपकर, वहीं समृद्ध होकर उसी का होकर रहता है। लोक-साहित्य की संपन्नता के लिए यहाँ की ग्रामीण प्रकृति कारणीभूत रही है। धार्मिक और राजनैतिक क्षेत्र में अखिल भारत ख्याति प्राप्त कर्नाटक को प्रकृति ने भी अनुकंपापूर्ण दृष्टि से देखा है। कृष्णा, कावेरी, तुंगभद्रा जैसी नदियों ने इस प्रांत को सकल समृद्धि से भर दिया है। एेसी पृष्ठभूमि में निसृत लोक-साहित्य रसमय है ही।
कन्नड लोक-साहित्य के अध्ययन और मनन की सुविधा के लिए उसे पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है-
1. कन्नड लोक-साहित्य में अभिव्यक्त धार्मिक भावना-
धर्म के आधार पर ही भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ है। कर्नाटक संस्कृति इसके लिए अपवाद नहीं है। धर्म के आश्रय में ही कन्नड जनता का दैनिक जीवन चलता है। विशेषकर लोक-साहित्य के स्त्रष्टा ग्रामीण जनता के जीवन में तो धर्म एक अनिवार्य अंग बना हुआ है। उसके हर कार्य में धार्मिक प्रवृत्ति महत्वपूर्ण स्थान रखती है। कर्नाटक के ग्रामीण-जीवन और गृहस्थ-जीवन एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। प्रात:काल होते ही ईश्वर की प्रार्थना करना और तदुपरांत ही कार्यारंभ करना ग्रामीण लोगों की दिनचर्या है। ग्रामीण कवि उदीयमान रवि के आगे नतमस्तक होकर इस तरह गा उठा है-
“मुंगोळि कूगेद मूडु केंपेरेद।
रविनारायण रथवेरि। बरूवाग
नावेददु कैय्य मुगिदेवु।”4
(प्रात:काल होते ही मुर्गी ने बाँग दी है, पूरब में लाली छायी है और भगवान सूर्य रथारूढ़ होकर आते समय हम उनकी वंदना करते हैं।)
इसी तरह निम्नांकित पंक्तियों में सहज सौंदर्य है, मधुर संगीतात्मकता है और सीधी-सादी अभिव्यक्ति है। गाँव की गृहिणी रोज का कार्यारंभ इस प्रकार करती है-

“अत्ते मावग शरणु, मत्ते गुरूविगु शरणु।
मत्तोंदु शंरणु, शिवगे। वप्पलेंदु
ना बग्गिदे मनेय केलसके।”5
ग्रामीण स्त्री अपने सास-ससुर को प्रणाम कर, गुरू की वंदना और शिव की स्तुति करने के बाद घर के कामकाज में लग जाती है। उपर्युक्त पद्य में बडों के प्रति उसका आदर-भाव स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होता है। यहाँ बहुदेवोपासना पद्धति का प्रचलन होने के कारण प्रादेशिक परिवेश के अनुसार अनेक देवी-देवताओं की पूजा हुआ करती है। मारम्मा (महामाया), काळम्मा (महाकालि), हादिय लक्ष्मम्मा (सीमा लक्ष्मी) इत्यादि ग्रामदेवताओं का वर्णन यत्रतत्र मिलता है।
2. कन्नड लोक-साहित्य की साहित्यिकता-
लोक-साहित्य की सरसता और सरलता उसकी सहजता में है। लोक कवि के प्रकृति वर्णन, सुंदर शब्द योजना, वाकचातुर्य और लयबद्धता से सजकर गीत इतने प्रभावशाली बन गये हैं कि वे श्रोता या पाठक पर अपनी गहरी छाप छोडे बिना नहीं रह सकते। बीज बोना, रोपना, फसल काटना, खलिहान भरना, दाएँ हुए धान की बरसाई करना आदि सभी कार्य प्रकृति की क्रिया पर ही निर्भर है। प्रकृति में वह चेतनापूर्ण ध्वनि सुनता है। वह उल्लसित होकर इस तरह गा उठता है-
“बेळळग बेळगागि बेळिळ मूडलवागि
वळळोळळे मीन गरितेगेदु।
आडताव गरति गंगम्मन उडियाग।”6
यहाँ लोक कवि गंगा मैय्या को गृहिणी मानता है और नदी की सतह को उसका आँचल। बालसूर्य की रश्मियों से चमकती हुई लहरों पर चंचल मछलियों का आरोप करके कहता है कि इस गृहिणी के आँचल में वे बच्चों की भाँति किलकारियाँ भर रही हैं।
लोक कवि ने चांदनी, तालाब, नदी, के सौंदर्य को अपने शब्दों में बाँध रखता है। उसके सौंदर्य दर्शन का और एक प्रमाण नीचे का पद्यांश हो सकता है-
“अळुव कंदन तुटियु हवळद कुडिहंग
कुडिहुब्बु बेविनेसळंग। कण्णोट
शिवन कैय्यलगु होळेदहंग।।”7
रोते हुए अपने बच्चे के होंठ माँ को मूंगे की तरह लगते हैं, उसकी भौंहें नीम की कोंपलों की तरह भास होती है तो उसकी आँखों में शिव की त्रिशूल की सी चमक नज़र आती है।
3. कन्नड लोक-साहित्य में चित्रित सामाजिक जीवन-
कन्नड लोक-साहित्य में सामाजिक जीवन की गतिविधियों के समग्र चित्र सरल तथा सरस ढंग से अंकित हुए हैं। जीवन के महान तत्वों को सीधे-सादे शब्दों में कह पाना ही लोक साहित्य की स्वाभाविक विशेषता है। उदाहरण के लिए-
“संसारवेंबुदु सागर होळेयव्व
ईस बल्लवग यदेयुद्द। गिळिराम
ओद बल्लवग कैलास।”8
यह संसार समुंदर से जा मिलनेवाली नदी के समान है। जो तैरना जानता है वही पार लग सकता है और ज्ञानी को ही कैलास (स्वर्ग) प्राप्त होता है।
विवाह हमारे सामाजिक जीवन का एक प्रमुख अंग है। अत: कन्नड लोक साहित्य में ‘मदुवे हाडुगळु’ (विवाह के अवसर पर गाये जानेवाले गीत) का अपना एम महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट स्थान है। बारातियों का स्वागत करना, पीला चढ़ाना, सेहरा बाँधना आरती उतारना आदि प्रसंगों में गाये जानेवाले गीतों में ग्रामीण जनमानस का उत्साह और उल्लास भावनाएँ ही अभिव्यक्त होती हैं। शादी के बाद अपनी बेटी को ससुराल भेजते समय माँ का हृदय भर आता है, उसका कलेजा मुँह को आता है और वह इस तरह रो पड़ती है-
“वबंत्तु तिंगळु निन्न तुंबिकोंडु तिरगेन
हंबलिसि निन्न हडदेनु। चित्तरद
निन्नोप्पिसि कोडल ह्यांग।।”9
(नौ महीने मैंने तुझे अपने पेट में ढो लिया है और मैंने तुझे बड़ी आशा से पा लिया है। गुडिया जैसी मेरी बेटी तुझे कैसे भेजूँ?)
और बेटी अंदर ही अंदर बिलखती हुई, अपार दुख को दबाये माँ को इस प्रकार आश्वासन देती है-
“तावरिय गिडहुट्टि देवरिगे नेरळादे।
ना हुट्टि मनेगे यरवादे। हडदव्व
नी कोट्ट मनेगे हेसरादे।।”10
(सरोवर में खिला हुआ कमल जिस प्रकार भगवान की छत्रछाया बन जाता है; उसी प्रकार मैं तुम्हारा घर छोड़कर परायी बनने पर भी ससुराल की रोशनी जरूर बन जाऊँगी।)
4. कन्नड लोक-साहित्य में ‘कथन-पद्य’-
‘कथन पद्य’ लोक साहित्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। जीवन के अनुभवों को सीदे व्यक्त करने के बजाय उनको एक कथा-सूत्र में बाँधकर रखना अधिक जनप्रिय विधान माना जाता है। इसी कारण कहानी सुनाने का उत्साह और कहानी सुनने की उत्सुकता मनुष्य की सहज प्रवृत्तियाँ हैं। ‘लोक कथन पद्यों’ को प्रमुख रूप से पाँच भागों में विभाजित किया जाता है। जैसे-
अ) एेतिहासिक घटनाओं पर आधारित रचनाएँ
आ) पुराण कथाओं पर आधारित गीत
इ) भक्तों, शरणों और संतों से संबंधित कथाएँ
ई) सामाजिक ‘कथन-पद्य’
उ) हास्य प्रधान ‘कथन-पद्य’
लोक साहित्य की एक और धारा है प्रकीर्ण साहित्य। इसे तीन लघु प्रकारों में समाविष्ट किया जा सकता है। जैसे- त्. लोकोक्तियाँ त्त्. मुहावरें और त्त्त्. पहेलियाँ। कन्नड जनपद के जीवन में लोकोक्तियाँ घुल-मिल गयी हैं। दैनिक जीवन में घटि हुई घटनाओं के आधार पर कुछ उक्तियाँ साधारण मनुष्य के मुँह से निकलती हैं, जो ठोस सत्य के कारण आम जनता में प्रचलित होकर लोकोक्तियाँ कहलाती हैं। निम्नांकित कुछ लोकोक्तियों से कन्नड संस्कृति की सभी पहलुओं का उज्वल परिचय प्राप्त होता है।
ड्ढ अंगै हुण्णिगे कन्नडि बेके? (हाथ के कंगन को आरसी क्या?)
ड्ढ दीपद केळगे कत्तलु। (चिराग तले अंधेरा)
ड्ढ मंत्रकिंत उगळे जास्ति। (मंत्र से थूक ही ज्यादा)
इसी तरह कन्नड की कहावतें ज्ञान, शिक्षा, कर्तव्य, उपदेश, व्यंग्य से समाज और जीवन से संबंधित विविध विषयों पर मार्मिक व्यंग्य और चुभनेवाली उक्तियाँ प्रस्तुत करती है। पहेलियाँ लोकमानस के मनोरंजन तथा ज्ञानवर्धन के साधन बन गये हैं।
‘कर्नाटक लोक-साहित्य परिषद’ और ‘कर्नाटक लोक-साहित्य और यक्षगान अकादमी’ इन केंद्रों में कर्नाटक लोक-साहित्य का अद्ययन किया जाता है। गोविंद पै संशोधन केंद्र, उडुपि (एम.जी.एम.कालेज) ने स्पेनिश विश्वविद्यालय के सहयोग से कन्नड लोक साहित्य और कन्नड लोक-कलाओं से संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। ‘कर्नाटक लोक-साहित्य और यक्षगान अकादमी’ द्वारा हर साल लोक-साहित्य के विद्यार्थियों को और कलाकारों को ‘जनपद तज्ञ’ पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है।11
निष्कर्ष : कन्नड लोक-साहित्य की इन विभिन्न धाराओं में इस प्रदेश का समस्त जीवन सम्यक रूप से चित्रित हुआ है। कन्नड लोक-साहित्य जनता के बीच में ही प्रचलित और प्रवाहित सुंदर गीतों की धारा है। लोक-साहित्य के कारण कन्नड साहित्य समृद्धशील है।
संदर्भ ग्रंथ-
1. कर्नाटक संस्कृति - श्री.शरेश्चंद्र चुलकीमट ट्ट पृ सं ट्ट 70
2. अंतर्जाल से...
3. कर्नाटक संस्कृति और कन्नड साहित्य ट्ट डा.शशिधर एल. गुडिगेनवर
4. कर्नाटक संस्कृति - श्री.शरेश्चंद्र चुलकीमट ट्ट पृ सं ट्ट 73
5. कर्नाटक संस्कृति - श्री.शरेश्चंद्र चुलकीमट ट्ट पृ सं ट्ट 73
6. कर्नाटक संस्कृति - श्री.शरेश्चंद्र चुलकीमट ट्ट पृ सं ट्ट 75
7. कर्नाटक संस्कृति - श्री.शरेश्चंद्र चुलकीमट ट्ट पृ सं ट्ट 76
8. कर्नाटक संस्कृति - श्री.शरेश्चंद्र चुलकीमट ट्ट पृ सं ट्ट 77
9. कर्नाटक संस्कृति - श्री.शरेश्चंद्र चुलकीमट ट्ट पृ सं ट्ट 78
10. कर्नाटक संस्कृति - श्री.शरेश्चंद्र चुलकीमट ट्ट पृ सं ट्ट 79
11. अंतर्जाल से...

 

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