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‘प्रेमचन्द का सोज़े-वतन’ की समीक्षा

 

 

premchand

 

- पुरुषोत्तम ‘प्रतीक’

 

हिन्दी-उर्दू साहित्य की दुनिया में प्रेमचन्द इकलौती ऐसी शख़्सियत हैं जिनपर दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से चर्चा होती है. परन्तु सामान्य रूप से ये चर्चा एकांगी होती है. हिन्दी के समीक्षक प्रेमचन्द को अपने हिसाब से बनाये हुए खाँचे में बिठाने की कोशिश करते हैं तो वहीँ उर्दू के समीक्षक उन्हें अपने साँचें में फिट कर लेते हैं.यह दुखद रहा कि समीक्षा का कोई तीसरा तरीक़ा या मध्यममार्गी तरीक़ा हम ईजाद नहीं कर पाये जिससे प्रेमचन्द-जैसी विराट शख़्सियत को सम्पूर्णता में समझ पाने की कला विकसित होती.
युवा समीक्षक डॉ. आशुतोष पार्थेश्वर ने अपनी पुस्तक 'प्रेमचन्द का सोज़े-वतन' में समीक्षा की बनी-बनाई पारम्परिक रीतियों से हटकर एक नयी समीक्षा विधि को अपनाया है,जिससे वे अन्य समीक्षकों की अपेक्षा प्रेमचन्द के ज़्यादा क़रीब पहुँचने में सफल हुए हैं.प्रेमचन्द जो हिंदी साहित्य में आकर पल्लवित हो जाते हैं,उनकी जड़ें उर्दू साहित्य में गहरी हैं,जिसे कुछेक समीक्षक नज़रअंदाज़ कर देते हैं. आशुतोष अपनी समीक्षा में उन जड़ों की पड़ताल करते हुए निष्कर्ष तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं.
पुस्तक में तीन खंड हैं- भूमिका खंड, कहानियों का मूल उर्दू पाठ एवं हिंदी लिप्यन्तरण तथा परिशिष्ट. भूमिका खंड में कुल छः आलेख हैं जिसके प्रथम तीन आलेखों में समीक्षक सर्वप्रथम प्रेमचन्द के 'सोज़े-वतन' की ऐतिहासिकता तथा प्रामाणिकता विभिन्नं शोध एवं अनेक नए तथ्यों द्वारा सिद्ध करते हैं.ये अत्यंत आवश्यक था क्योंकि 'सोज़े-वतन' ही वह उद्गम बिंदु है जहाँ से समीक्षक प्रेमचन्द को सम्पूर्णता से समझने का प्रयत्न करते हैं. 'सोज़े-वतन' ही वह बिंदु है जहाँ से 'धनपत राय' की जगह एक नए 'प्रेमचन्द' का जन्म होता है.
'सोज़े वतन' के प्रकाशन तथा ज़ब्ती के सन्दर्भ में विद्वानों में मतैक्य नहीं है. डॉ. पार्थेश्वर ने विभिन्न तथ्यों एवं निजी शोध द्वारा इस विवाद को सुलझाने का प्रयत्न किया है तथा यह सिद्ध कर दिया है कि 'सोज़े-वतन' का प्रथम प्रकाशन अगस्त,1908 में ज़माना प्रेस,कानपुर से हुआ था.यह पुस्तक 'नवाब राय' के नाम से प्रकाशित हुई थी. यह 'सोज़े-वतन' ही थी जिसके कारण प्रेमचन्द ने उपनाम-छद्म नाम अपनाया. यह पुस्तक विधिवत रूप से प्रतिबंधित नहीं हुई थी.प्रेमचन्द को किसी भी प्रकार के बुलावे या कारवाई का सामना 8 फ़रवरी,1910 के बाद ही करना पड़ा होगा.
इसी क्रम में डॉ पार्थेश्वर ने प्रेमचन्द की रचनावली में दूसरे लेखक की रचनाओं का असावधानीवश शामिल किये जाने पर आपत्ति दर्ज़ की है तथा ऐसी अनेक रचनाओं को चिन्हित करने का कार्य किया है. 'सोज़े-वतन' की ज़ब्ती एवं प्रेमचन्द के छद्म नाम का सहारा लेकर कई ऐसी रचनाएँ जो प्रेमचन्द साहित्य में शामिल कर ली गयी थीं ,उनकी भी निशानदेही समीक्षक ने बड़ी सूक्ष्मता से की है. उन्होंने ये सिद्ध कर दिया है कि वे रचनाएँ - अबशारे-नियाग्रा, जॉन ऑफ़ आर्क तथा दो अंग्रेज़ी फिलॉसफर ,प्रेमचन्द की नहीं बल्कि किसी और ही धनपत राय की थी जो हुक़ूमते-हिन्द की वज़ारते-दिफ़ा के महकमे-डेरी फॉर्म में मुलाज़िम थे.
'सोज़े-वतन' का महत्व सिर्फ इसलिए नहीं है कि इसने धनपत राय को प्रेमचन्द बनाया बल्कि इसलिए भी है कि 'सोज़े-वतन' ही वह बिंदु है जहाँ से प्रेमचन्द की आरम्भिक तथा बाद की रचनाओं का एक साथ सम्यक दृष्टि से मूल्यांकन किया जा सकता है. 'सोज़े-वतन' प्रेमचन्द की कहानियों का पहला संग्रह है जिसमें कुल पाँच कहानियाँ हैं. मगर ध्यान देने योग्य बात तो ये है कि इसमें 'सोज़े-वतन' शीर्षक की कोई कहानी नहीं है. फिर इस कहानी-संग्रह का शीर्षक 'सोज़े-वतन' रखने से प्रेमचन्द का क्या अभिप्राय था? प्रेमचन्द के लिए वतन का क्या अर्थ था? और प्रेमचन्द वतन के दर्द,वतन की पीड़ा को किस प्रकार समझते थे? ऐसे कई प्रश्न हैं जो हमें 'सोज़े-वतन' को खोलने-परखने में मददगार साबित होंगे.
प्रेमचन्द के लिए 'वतन' का अर्थ मानचित्र पर आड़ी-तिरछी लक़ीरों से घिरे विशिष्ट भूखंड का नाम नहीं था.प्रेमचन्द का 'वतन' से अभिप्राय उस विशिष्ट भूखंड के विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों से था. प्रेमचन्द की तड़प सम्पूर्ण मानवता को लेकर थी.प्रेमचन्द का दर्द इस समाज में फैली कुरीतियों,अंधविश्वासों,दलितों और ग़रीबों पर अत्याचार,स्त्रियों की स्थिति,ज़मींदारी प्रथा से लेकर भारत की ग़ुलामी और भारत की उत्तरोत्तर गिरती हुई आर्थिक और सामाजिक स्थिति को लेकर था.
इसलिए प्रेमचन्द की कहानियों के पात्र एकाएक क्रांति में कूदकर वतन के लिए अपने तन-प्राण न्योछावर नहीं करते. वे परोक्ष रूप से क्रांति में सहायक होते हैं.उनके यहाँ हुब्बुलवतनी का उग्र रूप नहीं है,वे देश की बुनियादी समस्याओं को समझते हुए उसपर प्रहार करते हैं.उनकी दृष्टि में सिर्फ़ अंग्रेज़ी शासकों से मुक्ति ही ग़ुलामी से मुक्ति नहीं है,उनकी दृष्टि में ग़ुलामी से मुक्ति का अर्थ अंग्रेज़ियत से मुक्ति था.अपने कई लेखों में भी उन्होंने इस बात की चर्चा की है.राजनैतिक शब्दावली में कहें तो प्रेमचन्द की क्रांति,प्रेमचन्द का राष्ट्रवाद,गाँधीवादी राष्ट्रवाद का ही एक रूप था.
प्रेमचन्द का वतन के प्रति यह दृष्टिकोण उनके शुरूआती उपन्यास 'असरारे-मआविद्' से लेकर आख़िरी सम्पूर्ण उपन्यास 'गोदान' तक में मिलता है.कभी वे 'असरारे-मआविद्' के माध्यम से मंदिरों में धर्म के नाम पर होने वाले व्याभिचारों और पाखण्डों का चित्रण करते हैं तो कभी 'हमख़ुर्मा-ओ-हमसवाब' के माध्यम से विधवा विवाह पर प्रकाश डालते हैं. कभी 'किशना' और 'ग़बन' के माध्यम से एक मध्यमवर्गीय समाज की समस्याओं को रेखांकित करते हैं.तो कभी 'जलवाए-ईसार' और ‘सोज़े-वतन’ के मार्फ़त क्रांति की बात करते हैं. प्रेमचन्द की चिंता देश और समाज की छोटी-छोटी बुनियादी समस्याओं को लेकर प्रकट हुई है. इसलिए प्रेमचन्द के यहाँ समाज के हरेक वर्ग की प्रति सहानुभूति है. वे सिर्फ़ 'होरी' और 'घीसू' जैसे पात्रों से ही सहानुभूति नहीं रखते,उनकी सहानुभूति 'रायसाहब' और 'निर्मला' के प्रति भी है. वे दलितों के अस्पृश्यता की समस्या(कर्मभूमि) और ग़रीबों के दमन (गोदान) की बात भी उठाते हैं तो समाज में होने वाले नारी जागरण की सूचना भी देते हैं. इस प्रकार प्रेमचन्द का दर्द समाज में व्याप्त सभी समस्याओं के प्रति है.प्रेमचन्द की क़सक,प्रेमचन्द की पीड़ा,सिर्फ़ वतन की ग़ुलामी ही नहीं,वरन देश की बुनियादी समस्याएँ भी हैं.इस दृष्टिकोण से अगर देखें तो प्रेमचन्द का सम्पूर्ण साहित्य देश और समाज के प्रति पीड़ा का उदगार है.ऐसे में यदि प्रेमचन्द के संपूर्ण साहित्य का संग्रह कर उसे 'सोज़े-वतन' का नाम दे दिया जाये तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

 

 

v 'सोज़े-वतन' की कला:-
'सोज़े-वतन' में संकलित कहानियाँ फ़ारसी क़िस्सागोई की शैली में लिखी गयी हैं. प्रेमचन्द के उत्तरवर्ती काल की कहानियों और 'सोज़े-वतन' के काल की कहानियों को तुलनात्मक रूप से पढ़ने के बाद एकबारगी यह यक़ीन करना ही मुश्किल हो जाता है कि 'सोज़े-वतन' की कहानियाँ प्रेमचन्द ने ही लिखी हैं.ये शैली हातिमताई और शहज़ादा सलीम की कहानियों तथा पुराणों,पंचतंत्रों और फ़ारसी काव्यों की याद दिलाती है.कई वाक़ये ऐसे भी आते हैं जिनपर विश्वास करना संभव नहीं हो पाता.
प्रेमचन्द की कथा शैली पर अगर ग़ौर करें तो ये शैली दरअसल आम बातचीत की शैली है.प्रेमचन्द उसी भाषा में बात करते हैं जिस भाषा में गाँवों में,चौपालों पर,नुक्कड़ों पर बातचीत होती है.प्रेमचन्द की कथा शैली में बनावटीपन नहीं है,प्रतिभा का आतंक नहीं है,टेकनीक की घुसपैठ नहीं है,बल्कि उसमें इन्सानी ज़िंदगी से बतियाने का दिलचस्प हुनर है.रामविलास शर्मा के शब्दों में कहें तो उनकी कहानियों में एक तरह का लोकरस है......कुछ यहाँ की धरती की सुगंध,यहाँ की हवा की ताज़गी और महक,जो बड़े-बड़े टेकनीकवादियों के यहाँ बहुत तलाश करने पर भी नहीं मिलती.
प्रेमचन्द की अरबी-फ़ारसी दास्तानगोई की शैली में जो एक प्रवाह और रवानी है,वह प्रेमचन्द की गद्य-भाषा को काव्य-भाषा के अति निकट ले जाती है.इन रचनाओं में व्यंग्य और उपमाओं का जो आधार है वह प्रेमचन्द के बाद की रचनाओं में जाकर विस्तृत रूप ले लेती है.प्रेमचन्द के बाद की कहानी कला इसी सोते से विकसित होती है.उन कहानियों का आधार समझने के लिए इस सोते की पड़ताल अति आवश्यक है. प्रेमचन्द के यहाँ जो दृश्य उपस्थित करने की कला है वह प्रेमचन्द की आख़िरी रचनाओं तक में बनी रहती है . प्रेमचन्द शब्दों को अनावश्यक रूप से थोपते नहीं हैं और न ही शब्दों को अन्यथा निकाल फेंकते हैं. उनके यहाँ हिंदी-उर्दू की मेंड़ नहीं खींची जा सकती. वे जैसा देखते हैं,जैसा सुनते हैं,नैसर्गिक रूप से पन्नों पर उतार देते हैं.प्रेमचन्द में ये गुण यकायक ही नहीं आ जाते,उनकी कला एकबारगी ही इतनी प्राकृतिक नहीं हो जाती,इसके बीज उनकी आरम्भिक रचनाओं में छुपे पड़े हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि उर्दू से हिंदी लिप्यंतरण का कोई मानक तरीक़ा अभी तक ईजाद नहीं हो पाया है.उर्दू-फ़ारसी में कई ऐसे स्वर हैं,जिन्हें देवनागरी में दर्शाना मुमकिन नहीं हो पाता है.विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने हिसाब से लिप्यन्तरण के अलग-अलग तरीक़े सुझाये हैं. परन्तु कोई भी तरीक़ा उर्दू शब्दों को सही प्रतीक देने में पूर्ण रूप से सक्षम नहीं है.लिप्यन्तरण की इन समस्याओं के बावज़ूद डॉ पार्थेश्वर ने जिन विधियों और प्रतीकों को अपनाया है,वह शब्दों को उर्दू के काफी क़रीब पहुँचाने में सफल होती है.
वस्तुतः किसी भाषा के साहित्य का अनुवाद एक बड़ी कला है.शब्दकोशों की सहायता से जो अनुवाद किये जाते हैं उसमें मूल भाव के प्राण निकल जाते हैं. अनुवाद अगर शब्दों पर आधारित न होकर भावों पर आधारित हो तो वो ज़्यादा बेहतर होता है.अनुवाद करने के क्रम में कई बार अनावश्यक रूप से कुछ शब्दों के दूसरे अर्थ रख दिए जाते हैं तथा कुछ शब्द यों ही छोड़ दिए जाते हैं,जिससे वाक्य में जो बहाव,जो रवानी होती है,वह खोती चली जाती है. इसका कोई मानक तरीक़ा नहीं है. डॉ पार्थेश्वर ने 'यही मेरा वतन है' में तुलनात्मक तरीक़े से इसके मूल रूप और अनुवादों के अंतर का सूक्ष्म विवेचन किया है.पुस्तक में एक कमी खलती है कि अगर ये तुलनात्मक विवेचन अन्य कहानियों के लिए भी किया जाता तो ज़्यादा उचित होता. उर्दू-हिंदी के अनुवाद में भाषा वैसी होनी चाहिए,जिसे हम दैनिक जीवन की बोलचाल में इस्तेमाल करते हैं.दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो- ‘ उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती है तो उनमें फ़र्क़ कर पाना बड़ा मुश्किल होता है’.

 

 

पुस्तक समीक्षा
समीक्षक:- पुरुषोत्तम ‘प्रतीक’
संग्रामपुर,मुंगेर(बिहार)
मो.- +919304905848
ईमेल:

 

पुस्तक:- प्रेमचन्द का सोज़े-वतन
लेखक:- डॉ आशुतोष पार्थेश्वर
प्रकाशक:- नयी किताब प्रकाशन,नयी दिल्ली
पेपरबैक संस्करण मूल्य:- 300 रुपए

 

 

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