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रावण और मेरा दुख

 

दशहरा का दिन था लाखों की भीड़ थी उस भीड़ में हर वो शक्सथा जो दुनिया भर की बेबुनियाद बातें करता था , भीड़ के बीचों बीच मौजूद था तो बस एक निर्जीव घास फूस और आतिशबाज़ी से सज़ा हुआ एक पुतला जिसे सब रावण कह रहे थे और उसे बुरी नज़र से देख रहे थे ! उस पुतले के बारे में बुरा बुरा बोलते लोग , उसे आग में फूँक देने के लिए बेताब लोग इस भीड़ में खड़े उस बेजान पुतले ने मुझसे बस यही कहा - ये वो लोग हैं जो एक निर्जीव को जलाने के लिए लाखों खर्च कर चुके हैं अगर चाहते तो उन पैसों से ना जाने कितने भूखों का पेट भर सकते थे , ये दुनिया बचाने की बात करते हैं मेरे जलने से जो धुँआ निकलेगा वो क्या वातावरण प्रदूषित नही करेगा , अपनी फ़ितरत को मुझमें देखते हैं और इतना सब ग़लत करने के बाद रावण मुझे कहते हैं जबकि मैं तो बेजान हूँ ! उस बेजान पुतले का बस यही एक सवाल था " क्या तुम राम हो ? " और सबसे दुखद बात तो ये थी की मैं भी इस भीड़ का हिस्सा था !

 

 

 

लेखक - पुष्पेंद्र सिंह कुशवाह

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