आंख के काजल को मैंने रोशनाई तो बनाया,
पर प्रणय के छ्न्द अब तक गीत में न ढाल पाया ।
यूं नुपुर तो पायलों के सांस की लय पर बजे हैं,
बिम्ब सुधियों के सुनहरे आज भी नयनों सजे हैं।
देहरी संकोच की न आज तक लांघी गई है,
वेणियों में शब्द के गजरे कहां मैं बांध पाया।
आंख के काजल को मैने रोशनाई तो बनाया
दीप मैनें भी जलाये प्रीत के मन द्वार पर,
और हवाओं से बचाए हाथ को दीवार कर ।
पर हथेली में कभी न प्रेम की रेखा बनी,
मैंने तो नदिया किनारे रेत का बस घर बनाया।
आंख के काजल को मैंने रोशनाई तो बनाया
मन के मन्दिर में बिठाईं मूर्तियां पाषाण की,
और अपेक्षा कर रहा था उन से भी वरदान की।
पर हवन करते हुए खुद हाथ अपने ही जले,
हार कर लौटा सदा ही दांव पर मन जब लगाया।
आंख के काजल को मैंने रोशनाई तो बनाया
आर० सी० शर्मा “आरसी”
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