जिस्मो ज़ेहन के घाव छिपा कर चली गयी ,
हिन्दोस्तां को आज रुला कर चली गयी|
हालां की तेरी ज़िंदगी का बुझ गया चराग,
तू अनगिनत चिराग जलाकर चली गयी|
हम सो गए जिस रात तेरे पंख नुचे थे,
अच्छा हुआ तू सबको जगा कर चली गयी|
दामन ये दामिनी का न छूटेगा हाथ से,
तू ये कसम सभी को दिला कर चली गयी|
बेटी के भाग्य में सदा परदेस लिख दिया,
चुपचाप , अपने पाँव दबा कर चली गयी|
ज़ख्मों का, तेरे दर्द का, एहसास था हमें ,
दुखियारे दिल को और दुखा कर चली गयी|
--आर० सी० शर्मा “आरसी”
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