ढूंढा किया मैं अक्सर परछाइयों में तुझको।
खोजा न अपने मन की अमराइयों में तुझको॥
कालिंदी कूल रज में, कभी मंदिरों के ध्वज में;
पर अपने साथ पाया तन्हाइयों में तुझको॥
तू बाँसुरी की धुन में, घुंघरू की रुनकझुन में;
मन बावरा सा ढूंढे शहनाइयों में तुझको॥
मैं शाख-शाख ढूँढूँ, तू पात-पात बैठा;
पाया है हर कली की अंगड़ाइयों में तुझको॥
साँसों में बस रहा तू, दिल में धड़क रहा तू;
पाया है हर अदा की रानाइयों में तुझको॥
जो मन के “आरसी” में, या आरसी के मन में;
डूबा तो उसने पाया, गहराइयों में तुझको॥
-आर० सी० शर्मा “आरसी”
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