गुरू जी तुम बिन कौन हितैषी मेरो ,
भव बंधन काट्यो है तब तें नित नित नयो सबेरो |
निसदिन मन भटकत है या ने पायो नहीं बसेरो,
जब तें गुरु चरनन में आयो यही लगे घर मेरो|
सुत ,दारा ,सम्पति सब ही हैं फिर भी दुःख घनेरो,
गुरु को परस भयो जा दिन तें ,तुरत भयो निरबेरो|
तृष्णा में उल्झ्यो मन हर दिन करत है तेरो मेरो,
गुरु प्रसाद पाये से मिट गयो अंतर्मन को अंधेरो|
पर उपकार करौ मन मेरे का तेरो कहा मेरो ,
सद्गुरु दीन दयाल भये से कछु ना बिगरै तेरो|
आर० सी ० शर्मा “आरसी ”
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