हमको अपनी ही बस्ती में, वीरानापन लगता है,
अपनों की आँखों में अब तो अनजानापन लगता है।
जोड़ के फिर से देख लिया है,तस्वीरों के टुकड़ों को,
पर चेहरे की सलवट से तो, बेगानापन लगता है।
रिश्तों की बिखरी किरचों को लाख सहेजा था हम ने,
लेकिन उनको यह सब मेरा दीवानापन लगता है।
क्या समझेंगे क्या समझाएं एसे नादां लोगों को,
जिनको अपना मिलना जुलना आवारापन लगता है।
चुपके- चुपके सह लेंगे हम, फ़िर आदत हो जाएगी,
चुभते- चुभते अब काँटों में, कम पैनापन लगता है।
हमने भी महसूस किया है, अब तो लोग भी कहते हैं,
अब गज़लों मे उन्हें हमारी, कुछ अपनापन लगता है।
आर० सी० शर्मा “आरसी”
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