Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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कहीं और चल ज़िन्दगी

 

हो गई है अधूरी ग़ज़ल ज़िन्दगी,
काफ़िया अब तो अपना बदल ज़िन्दगी।

 

लड़खड़ाई, गिरी, गिर के फिर उठ गई,
डगमगाई बहुत अब सम्भल ज़िन्दगी।

 

ज़ुल्मत-ए-शब से लड़ तू सहर के लिए,
स्याह घेरों से बाहर निकल ज़िन्दगी।

 

ख्वाब खण्डहर हुए तो नई शक्ल दे,
कर दे अब कुछ तो रददो-बदल ज़िन्दगी।

 

जब डराने लगें तुझको खामोशियाँ,
तोड़ कर मौन शब्दों में ढल ज़िन्दगी।

 

छोड़ दे ये शहर गर न माफ़िक तुझे,
चल यहाँ से कहीं और चल ज़िन्दगी।

 

आज नाकाम है "आरसी" क्या हुआ,
कल तेरी होगी फिर से सफल ज़िन्दगी।

 

 

 

-आर० सी० शर्मा “आरसी”

 

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