आर० सी० शर्मा “आरसी”
किससे मन की कहें, कौन सुनता यहाँ, ?
है कबीरा दु:खी ये चलन देख कर ।
हाट सजने लगी अब तो शमशान में,
लाश बिकती जहाँ पर कफ़न देख कर ।रिश्तों की बिखरी किरचों को लाख सहेजा था हम ने,
लेकिन उनको यह सब मेरा दीवानापन लगता है।
क्या समझेंगे क्या समझाएं एसे नादां लोगों को,
जिनको अपना मिलना जुलना आवारापन लगता है।-चुपके- चुपके सह लेंगे हम, फ़िर आदत हो जाएगी,
चुभते- चुभते अब काँटों में, कम पैनापन लगता है।
हमने भी महसूस किया है, अब तो लोग भी कहते हैं,
अब गज़लों मे उन्हें हमारी, कुछ अपनापन लगता है।रहें बेफिक्र कैसे आओ इसका राज हम सीखें ,
परिंदों से नया जीने का ये अंदाज़ हम सीखें |
कोइ रुत हो,कोइ मौसम ,हवा प्रतिकूल हो चाहे,
चलो अम्बर को छू लेने की वो परवाज़ हम सीखें|
जर्जर होकर रिश्ते नाते खंडहर से आभासित होते,
संबंधों का तर्पण करने गंगाजल ढूँढा करता हूँ |
नाभि सुवासित कस्तुरीमृग फिरे "आरसी" जंगल-जंगल,
मन की जहाँ कुमुदिनी खिलती वो दलदल ढूँढा करता हूँ |
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