सरदी में झट से दे देती अपनी गरम रज़ाई मां
गरमी के भीषण झौकों में लगती है पुरवाई मां।
उधड़े-उधड़े से रिश्तों को भी कभी न फ़टने देती है,
करती रहती टांका-टांका उन सबकी तुरपाई मां।
बाबूजी कोहराम मचाते अक्सर दफ़्तर जाते जब,
टिफिन लगाती, कलम ढूंढती कभी नहीं झल्लाई मां।
भरती दादा जी का हुक्का दादी को भी नहलाती,
सम्बन्धों की भरपाई से कभी नहीं भरमाई मां।
कहते- कहते गज़ल “आरसी” अश्क आंख से बह निकले,
मां से बढ़कर कौन है जग में, आज बहुत याद आई मां।
-आर० सी०शर्मा “आरसी”
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