मन सदा जिसका मैला था मैला रहा,
छल फरेबों भरा मन का थैला रहा
रोज साबुन से मल मल के धोया बदन,
काश मन को भी धोने का करते जतन ।
द्वारकाधीश के नित पखारे चरन,
रोज मन्दिर में जा जा के गाये भजन ।
मन का आँगन तो मैला कुचैला रहा ।
मन सदा जिसका मैला था मैला रहा ।
झूठ के ताने बाने से चादर बुनी,
लाख समझाया मन की मगर कब सुनी।
सब की बातों की करते रहे अनसुनी,
अंत में राह बस छल –कपट की चुनी।
जीत का स्वाद फिर भी कसैला रहा।
मन सदा जिसका मैला था मैला रहा।
चाहे जितना भी गंगा नहा लीजिए,
वेश साधू का चाहे बना लीजिए ।
भाल पर लाख चन्दन लगा लीजिए,
मन दिखावे को निर्मल बना लीजिए।
मन की गंगा में कचरा तो फैला रहा,
मन सदा जिसका मैला था मैला रहा ।
मन तो कलुषित हो अमृत सी बातें करें,
पीठ पीछे जो छुप छुप के घातें करें,
उनसे क्या मन मिले, रिश्ते-नाते करें,
कुछ कसाई ज्यों गीता की बातें करें।
सर्प का दंश हरदम विषैला रहा।
मन सदा जिसका मैला था मैला रहा।
-आर० सी० शर्मा ”आरसी”
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY