Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मुक्तक

 

 

(1)
मोहब्बत से भरा एक पल भी वो खोने नहीं देती,
मेरे ग़म में भी तन्हा वो मुझे होने नहीं देती।
मैं सर गोदी में रखता हूँ तो सहलाती है बालों को,
मेरी माँ आज भी बूढा मुझे होने नहीं देती॥
(2)
सहन में कोई पौधा दुःख का वो उगने नहीं देती,
दुआ ऐसी नसीबों को बिगड़ने ही नहीं देती।
न जाने कौन सा चश्मा चढ़ा है उसकी आंखों पर,
मेरी माँ है कि मेरी उम्र को बढ़ने नहीं देती॥
(3)
ज़माने भर की हर शै से मुझे अच्छा समझती है,
कभी हीरा कभी मोती मुझे सच्चा समझती है।
मैं हँसता हूँ तो हस जाती मैं रोता हूँ तो रोती है,
मुझी माँ आज भी नन्हा सा एक बच्चा समझती है॥

(4)
हिमालय दर्द का है पर पिघलने ही नहीं देती,
किसी भी गम की आंधी को सँभलने ही नहीं देती।
मुझे मालूम है मुझको सफर में कुछ नहीं होगा,
बिना चूमे मेरा सर माँ , निकलने ही नहीं देती।

 

 

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