सर झुकातीं मुश्किलें भी आदमी के सामने
मौत अक्सर हार जाती ज़िन्दगी के सामने |
जो हिमालय सर उठा कर दे रहा था घुडकियां
आज वो भी झुक गया है आदमी के सामने |
पी लिया था अंजुरी में फिर यकायक डर गया
कोइ सागर टिक सका क्या तिश्नगी के सामने|
आदमी गर ठान ले तो क्या बड़ी यह बात है
बाँध कर सागर दिखाया हेकड़ी के सामने |
नफरतों के वास्ते कोई जगह ना हो यहाँ
मोम बन जाता बशर है दोस्ती के सामने |
छा रहा घनघोर तम या फिर अमा की रात हो
दीप का सर कब झुका है तीरगी के सामने |
चाहते हो तुम हमें यह बात तो मालूम है
पर नुमाइश क्यूं करें हम हर किसी के सामने
प्यार कर लो ज़िंदगी से फिर कहाँ ये ज़िंदगी
दुश्मनी कबतक टिकेगी "आरसी "के सामने |
आर० सी० शर्मा “आरसी “
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