Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

यूँ न ठुकरा मुझे, मत तिरस्कार कर

 

 

यूँ न ठुकरा मुझे, मत तिरस्कार कर,
एक मूरत हूँ मैं अनघढ़ी रह गई|
मुझको पढ़ मेरी माँ मैं हूं ऐसी ग़ज़ल,
जो लिखी तो गई बिन पढ़ी रह गई|

 

कोख में जब रखा मैंने पहला कदम,
मेरी आँखों में सपने मचलने लगे|
गाज तो तब गिरी जब ये मैंने सुना,
बागबाँ खुद कली को मसलने लगे|
रूह तो उड़ चली जाने किस देश में,
देह निष्प्राण मेरी पड़ी रह गई|

 

तेरे बेटे के हाथों की राखी थी मैं,
अपने हाथों से खुद तुने तोड़ा मुझे|
अपने भैय्या का नन्हा खिलौना थी मैं,
तोड़कर फिर कहीं का न छोड़ा मुझे|
लग के बाबुल के काँधे से होती विदा,
बिन कहारों के डोली खड़ी रह गई|

 

मेरी क्या थी खता मुझको इतना बता,
क्या हुआ तेरे अंगना कली खिल गई?
देगी आँचल मुझे या कि देगी कफ़न,
क्या करेगी दोबारा जो मैं मिल गई|
सब ये कहते हैं ममता की मूरत है माँ,
चाह बेटे की मुझसे बड़ी रह गई|

 

 

 

-आर. सी. शर्मा“आरसी”

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ