आज बाल दिवस है । सोचिये, क्या हम बच्चों को जीने योग्य परिवेश दे पाये ?
शर्म आनी चाहिये
हों जहाँ पर ज़ुल्म अपने देश की तक़दीर पर ।
शर्म आनी चाहिये उस मुल्क की तासीर पर ॥
ढेर पर कचरे के पलता हो जहाँ पर बालपन ।
जुस्तजू में पेट की दुहरा हुआ हो तन बदन ।
भूख टाँगे पीठ पर फिरता हो बचपन दरबदर,
शर्म आनी चाहिये उस मुल्क की तामीर पर ॥
पेट की ही आग में जलती हो तिल तिल ज़िंदगी।
हों छुरे चाकू इबादत हो नशा ही बन्दगी ।
ढूँढती नज़रें खिलौने गंदगी के ढेर में,
शर्म आनी चाहिये उस मुल्क की तदबीर पर ॥
हों जहाँ गलियाँ मदरसे गालियाँ ही इल्म हो ।
हो गुनाहों का सबक़ तालीम जिसकी जुल्म हो ।
हर कली सहमी हुई सी फूल मुरझाये हुए,
शर्म आनी चाहिये उस मुल्क की तस्वीर पर ॥
- डाॅ. राम वल्लभ आचार्य
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