दैनिक नई दुनिया १५ मार्च १९९२
सप्ताह का व्यंग्य
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बौरा उठे हैं "खास" भी
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इधर आम बौराना शुरू हुए तो उधर खास भी बौराने लगे । बसंत का मौसम ही कुछ ऐसा है कि हर कोई बौराने लगता है, बावला हो जाता है । इधर अनंग ने अंग अंग को तरंगित कर मन को मथ डाला है तो उधर सत्ता रूपी कामिनी ने भी विधान बसंत के आते ही इन विशिष्टों को अपने प्रेम कटाक्षों से घायल कर उनके हृदय को आलोड़ित कर दिया है । बजट रूपी आभूषणों से नवश्रंगारित इस सुन्दरी का आकर्षण दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा है और उसे न पाने की विवशता मन को विह्वल किये दे रही है । यूँ तो प्रदेश व्यापी सूखे पर ध्यान खींचने के लिये चित्र विचित्र दिखाया जा रहा है परन्तु 'ध्यान' है कि वह हृदय के सूखे पर केन्द्रित होता जा रहा है ।
जब मनुष्य अभावग्रस्त होता है तो उसका मन मस्तिष्क कार्य करने से इन्कार कर देता है और जब दीर्घावधि तक अभावों को झेलना पड्ता है तो मनोदशा गंभीर रूप धारण कर लेती है । सत्ता कामिनी और कंचन कनक इन दिनों एक दूसरे के पूरक हो गये हैं । हमने पढ़ा था -
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय ।
या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय ।।
परन्तु ये विशिष्ट खाकर या पाकर नहीं खोकर बौरा रहे हैं । आखिर दो वर्ष से अधिक हो गया चिल्लाते चिल्लाते कि सरकार भंग करो पर हाईकमान है कि भंग (भांग) खाये पड़ा है । उसके पास अनगिनत अर्जियाँ पहुँचीं, डेलिगेशन गये पर होश नहीं आया और व्यवस्था जहाँ की तहाँ है । ऐसे में बसंत का आगमन । बड़े बड़े संतों का मन डोल जाता है । दर असल दोष विशिष्टों का नहीं, बसन्त का है । संयम रखना मुश्किल हो गया है । ऐसे असमय में यह तन मन को विदग्ध किये दे रहा है ।
"दिल दीवाना बिन सजना के माने ना" की तर्ज पर इन विशिष्टों की चेष्टाएँ देख देख कर अब भी आम (जनता) द्रवित न हो तो दोष किसे दें ? बिन माँ के बेटों की तरह बुरे दिन देखने को बाध्य हैं । माँ होती तो क्या यह होता ? बेटा ज़िद करता - "मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लेहों" और माँ फौरन थाली में चंदा उतार देती । आखिर किसी को तो माँ का अभाव भरना पड़ता है । बड़े भैया को ही दया आ गयी और उन्होंने बाहर गैलरी में ही समानांतर सभा कर डाली । थाली में चाँद उतार दिया । बन सके तो ले लो ।
एक समय कुछ बच्चे गाय चराने जंगल में जाया करते थे । फालतू समय में वे मिलकर खेल खेला करते थे । एक लड़का एक टीले पर राजा बनकर बैठ जाता और कुछ बच्चे फरियादी बनकर फरियाद करते । लड़का उनकी बात ध्यान से सुनता और न्याय करता । समय बीता और वह लड़का ही उस सिंहासन पर राजा भोज के रूप में आरूढ़ हुआ । कहते हैं उस टीले के अंदर राजा विक्रमादित्य का राज सिंहासन गड़ा था । हो न हो उस गैलरी के नीचे भी राजा भोज का राज सिंहासन गड़ा होगा जिस पर बैठकर नकली के असली हो जाने की प्रबल संभावना से अभिभूत ये विशिष्ट राजा भोज की इस नगरी में इस अभूतपूर्व नाटक का मंचन कर रहे हैं ।
जो भी हो, होली का पर्व सम्मुख है । होलाष्टक लग चुके हैं । अतः यदि वातावरण में उसका प्रभाव दृष्टिगत हो तो उसे अनुचित नहीं कहा जा सकता । होली रंगों का पर्व है । वैसे भी जीवन में रंग उमंग के लिये हास्य व्यंग्य बहुत जरूरी है । पहले हास्य व्यंग्य के लिये राज दरबारों में भांडों और विदूषकों की नियुक्ति की जाती थी । चूँकि अब न राज दरबार रहे न विदूषक अतः यदि हमारे "खास" स्वयं वह भूमिका अदा कर इस परंपरा की पुनर्स्थापना द्वारा जन गण मन का मनोरंजन करने को प्रस्तुत हुए हैं तो उससे विचलित नहीं होना चाहिये, बल्कि इस समानांतर सभा की कार्यवाही ऐशबाग या टी.टी. नगर स्टेडियम में चलवाई जाये तथा निर्धारित दरों के टिकिटों के माध्यम से आम जनता को भी इसे देखने का अवसर उपलब्ध कराया जाये । इस प्रकार इस समानांतर सभा की कार्यवाही से जो आय हो उससे न केवल सूखाग्रस्त क्षेत्रों को अपितु इन विशिष्टों को भी सूखा राहत प्रदान की जाये । इससे उसे निश्चित ही धर्न, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होगी ।
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