हम अकेले हैं
जि़ंदगी की बाँच भी पाये न हम पुस्तक ।
साँझ ने दे दी अचानक द्वार पर दस्तक ॥
हर दिवस सम्मुख खड़ा है प्रश्न इक लेकर ।
लिख रहे हैं हम समय के पृष्ठ पर उत्तर ।
पुस्तिकायें भर गईं पर हल अधूरे हैं ,
और लिखना अंत प्रश्नों का नहीं जब तक ॥
है खुशी इक ओर जिसके दूसरे पर ग़म ।
वक्त की रस्सी पे चलते जा रहे हैं हम ।
नाचते हैं किस मदारी के इशारे पर,
देख भी पाते नहीं उसको उठा मस्तक ॥
साँप सीढ़ी का कि जैसे खेल यह जीवन ।
है कहीं उत्कर्ष तो है कहीं पर फिसलन ।
सिद्धियों की सीढ़ियाँ विषधर विफलता के,
हम अकेले हैं सफर भी क्या पता कब तक ॥
धड़कनों की ऊन ले जीवन सलाई पर ।
रंग ले सपनों के बुनते जा रहे स्वेटर ।
डालकर के उल्टे सीधे सांस के फन्दे,
पूर्ण करने का जतन हम कर रहे अब तक ॥
- डा. राम वल्लभ आचार्य
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