Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जल रही है ज़िन्दगी

 
जल रही है ज़िन्दगी
रफ्ता रफ्ता चल रही है जि़न्दगी ।
लम्हा लम्हा ढल रही है ज़िन्दगी ॥
चाहिये रोटी हमें दो जून की ।
प्यास उनको आदमी के खून की ।
नफरतों के वर्क पर लिखते रहे
हम इबारत प्यार के मजमून की ।
चंद ख्वाबों के लिये सब कुछ लुटा
हाथ अपने मल रही है ज़िन्दगी ॥
नाम हो चाहे ख़ुदा या राम का ।
है बहाना आज कत्ले आम का ।
मोहरे हम मजहबी शतरंज के
है सियासी खेल सुब्हो शाम का ।
मौत से पन्ने यहाँ अनगिन भरे
हाशियों में पल रही है ज़िन्दगी ॥
घुल रहा है अब हवाओं में ज़हर ।
हो गया अंधे कुएँ सा हर शहर ।
हर कदम हैं यहाँ पर दुश्वारियाँ
ज़िन्दगी लगने लगी जैसे कहर ।
या ख़ुदा, यह जाने कैसा दौर है
ज़िन्दगी को खल रही है ज़िन्दगी ॥
छिपे हैं कातिल इबादतगाह में ।
मौत मिलती ज़िन्दगी की चाह में ।
कौन रहबर बन के लूटे कब किसे
रहजनों की भीड़ है हर राह में ।
फिक्र है या दोपहर की धूप है
बर्फ जैसी गल रही है ज़िन्दगी ॥
जो गुनाहों की यहाँ तस्वीर है ।
हाथ उसके हमारी तक़्दीर है ।
जुल्म सहकर भी मनाते शुक्र हम
अपनी ऐसी ही अजब तासीर है ।
दर्द का दरिया समन्दर आग का
बह रही है जल रही है ज़िन्दगी ॥
           - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य

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