Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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*मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ* समीक्षा

 
कृति समीक्षा -
                  *मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ*
मेरे हाथों में है भाई राम वल्लभ आचार्य की सद्यः प्रकाशित गीत कृति "मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ" आंखों में उतरती, अन्तः प्रकोष्ठों को रस प्लावित करती, प्राणों के तार तार पर झंकृत होना चाहती है । मैंने कई बार सुना है इस गीत को, चिर परिचित हो गया है और अब तो यह इस संग्रह का प्राण तत्व और शीर्षक है । 
मैं सोचता हूँ हम सभी भी तो बाँसुरी ही हैं, धरे हैं किसी अनन्त के अधरों पर, बज रहे हैं, जैसा बजा रहा है वह । यहाँ तो हमें बात करनी है डाॅ. राम वल्लभ आचार्य की इस सद्यः प्रकाशित गीत कृति "मैं तुम्हारी बाँसुरी" की ।
दार्शनिक पृष्ठभूमि पर लिखी एक उत्कृष्ट गीत कृति है। इसके दार्शनिक पक्ष की गहराइयों में जाने की न तो मेरी क्षमता है, न साहस । एक सामान्य गीत कवि के स्तर से इस कृति का साहित्यिक मूल्यांकन अवश्य किया है वह मेरी क्षमताओं की सीमा में, कोई अन्तिम रेखा नहीं खींचना चाहूँगा । 
"मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ " शीर्षक से 75वें पृष्ठ पर जो गीत है, जब पढ़ता हूँ इस प्राण गीत को तो दो ही चित्र आँखों के सामने उभरते हैं । एक - उद्धव के सामने हाथ जोड़ खड़ी कविवर रत्नाकर की कृष्णमयी गोपियाँ  और दूसरा - महादेवी जी की गीत पंक्तियाँ "बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ, दूर तुमसे हूँ अखण्ड सुहागिनी भी हूँ" ।
सहज नहीं है तादात्म्य की यह स्थिति बाँसुरी हो जाना । भीतर के सारे विकारों को निकालकर शून्य हो जाना और फिर रन्ध्र रन्ध्र से उस शून्य का ध्वनित होना, बाँसुरी हो जाना है । भाव की चरमावस्था है यह । इससे भी बड़ी बात यह है कि यह जानते रहना कि जो कुछ हो रहा है वह तुम हो । काया मैं हूँ प्राण तुम हो, बाँसुरी मैं हूँ स्वर तुम हो और इन स्वरों से जो आनन्द की वर्षा हो रही है उसकी हर बूँद भी तुम हो । पान कर्ता भी तुम हो और आनन्द भी तुम हो । मैं तो बस निमित्त मात्र हूँ, सिर्फ तुम्हारी बाँसुरी, फूँकते हो तो बजती हूँ, काया हूँ मेरी आत्मा और परमात्मा तो तुम हो सिर्फ तुम ।
दार्शनिक ऊँचाइयों के ये स्वर पुस्तक के अधिकांश गीतों से ध्वनित होते हैं । सीमित नहीं हैं, प्रकाशन से पूर्व देश के अनेक ख्यातनाम गायकों के माध्यम से उच्चस्तरीय मंचो से गाये जाकर लाखों गीत प्रेमियों के दिलों में बस चुके हैं परन्तु वह एक अलग पक्ष है । 
साहित्यिक दृष्टि से आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर लिखे ये गीत भक्ति परक लगते हैं पर भक्ति गीत नहीं हैं, लोक मंगल के गीत हैं, लौकिक हैं, वैयक्तिक हैं पर व्यष्टि परक भी नहीं हैं । सारी रचनाओं में समष्टि के लिये सर्वत्र "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया" ही ध्वनित होता है । कवि विश्व में सुख शांति के संकल्प को साकार करना चाहता है । देव शक्तियों की आराधना का उद्देश्य अपने लिये नहीं जगत कल्याण के लिये है । सूर्य से प्रार्थना है - 
"विश्व में सुख शांति के संकल्प को साकार करना ।
हे उदित होते दिवाकर वन्दना स्वीकार करना ।"
पवन से विनय है -
"बहो जहाँ, हर एक हृदय में भर आनन्द बहो ।"
मेघ से माँगते हैं -
"बरसना जी भर मगर होवे न जल प्लावन, 
हो सदा सुख वृष्टि, लहकें खेत वन उपवन ।"
ईश्वर से -
"प्रभु तुम्हारी सृष्टि का प्रत्येक कण कल्यामय हो ।"
इतना ही नहीं -
"हर्ष हो कल्याणमय प्रभु वेदना कल्याणमय हो ।
भावनाओं का हृदय में अवतरण कल्याणमय हो ।
ध्वनि परम कल्याणमय हो नाद हर कल्याणमय हो ।
शब्द वाणी अर्थ शुभ, संवाद हर कल्याणमय हो ।।"
इस व्यापक कल्याणमयी भूमिका में लिखे गये ये गीत न तो व्यक्तिपरक कहे जा सकते हैं न परम्परावादी ।
संस्कारगत दार्शनिक पृष्ठभूमि पर खड़ा कवि अनन्त के सपने तो सजाता है पर उसके पाँव माटी में गहरे सने हैं और माथे पर चन्दन समकालीनता का ही रचता है । अतः गीत की वाणी कुछ भी हो ध्वनि समष्टिपरक ही है ।  ये गीत प्रति क्षण की युग नवता को स्वीकारते, समन्वित करते भी प्रतीत होते हैं । एक बात अवश्य है, सारी सुख समृद्धि युग जीवन के विकास के लिये प्रार्थनाएँ देव शक्तियों से की गयी हैं । अच्छा होता कवि यहाँ स्वयं अपनी प्रतिबद्धता, अपनी संकल्प शक्ति के साथ उपस्थिति दर्शाता परन्तु तब भक्ति भावना कमजोर प्रतीत होती । वैसे वे स्वयं अपने भीतर इसे महसूस अवश्य करते हैं, इसीलिये वे लिखते हैं -
"कब हृदय की मरुधरा पर नेह का अमृत झरेगा ।
नीर कब सम्वेदना का प्राण सरवर में भरेगा ।"
             ×             ×               ×
"कब नवेली धड़कनें नव रश्मियों से घट भरेंगी ?
स्वस्तिवाचन कब नये युग का थकी साँसें करेंगी ?
कब नया पौरुष सृजन की साधना का द्वार होगा ?
देव यह मेरा निवेदन कब भला स्वीकार होगा ?"
परन्तु यहाँ भी संकल्प पीछे छूट जाता है, भक्ति भाव के व्यापक क्षितिज ही हैं जहाँ बाँसुरी की ध्वनि के साथ कवि किसी अनन्त में खो जाना चाहता है । वह एक अलौकिक में अपने सारे लौकिक विलय की कामना करता है और इसी में उसे अपनी और लोक की सुख शांति की प्रतीति होती है । वे लिखते हैं -
"पा रहा हूँ मैं तुम्हारे प्रेम का वरदान पल पल,
इसलिये ही गा रहा हूँ वन्दना का गान पल पल ।"
ये सारे गीत भी तो तुम्हें जानने के प्रयास मात्र हैं । जिस दिन तुम्हें जान लूँगा, मैं चुप हो जाऊँगा । तब तक तो मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ, अब तुम्हारे ऊपर है, जब तक चाहो बजाओ । चरमावस्था है भावनाओं की और कहा भी क्या जा सकता है इसके बाद ।
आचार्य के इन गीतों को आज का गीत जगत किस रूप में स्वीकारेगा, मैं नहीं जानता । मेरी दृष्टि में तो ये गीत दार्शनिक पृष्ठभूमि पर रचे समष्टिपरक ऐसे युगीन नवगीत हैं जिनकी समकालीन नवता को हमें स्वीकारना ही चाहिये । हम इन्हें दार्शनिक नवगीत कह सकते हैं ।
समीक्षक - श्री यतीन्द्र नाथ राही


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