Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ

 

मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ

मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ,
फूँकते हो बज रही हूँ ।
तुम मुझे जब तक धरे हो,
मैं अधर पर सज रही हूँ ॥

ये तुम्हारे भाव ही हैं
प्राण में जो पल रहे हैं ।
ये तुम्हारे शब्द ही हैं
जो स्वरों में ढल रहे हैं ।
जो तुम्हारे कंठ में है
नाम वह ही भज रही हूॅं ॥

गूँजती है ध्वनि तुम्हारी ही
निरंतर नाद बनकर. ।
जो कि प्राणों को प्रफुल्लित
कर रही अाह्लाद बनकर ।
मान मुझको मिल रहा है,
बस इसी से लज रही हूॅं ॥

साज क्या जाने कि मुखरित
हो रहा वह बोल क्या है ?
बिक चुका जो क्या पता उसको
कि उसका मोल क्या है ?
परस पाकर महकती हूँ
मैं चरण की रज रही हूँ ॥

यह तुम्हारा खेल है
चाहे धरो चाहे उठाओ ।
मैं कहूँ क्या मन तुम्हारा
जब तलक चाहे बजाओ ।
सौंपकर सब कुछ तुम्हें
हर कामना मैं तज रही हूँ ॥
 

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