Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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उन के लिए कुछ नही ,जिनका सब कुछ थी मै

 
उन के लिए कुछ नही ,जिनका सब कुछ थी मै मेरी उनको  चाह नही जिनकी चाहत थी मै  बहुत दिनों तक खुश्क रही, ये नयन गलियाँ बह उठा वो सागर आखिर जिस को अबतक रोके थी मै  कुछ इस कदर छाई थी मुझपे हस्ती उनकी  ख़ुद को आइने मेभी ढूँढा तो ढूंढ न सकी  थी मै   स्नेह से बनाया ,सपनो से सजाया था जिसको उसी घर के एक कोने में आज तन्हा खड़ी थी मै  मोहब्बत की किरचें चुभती है कदमो तले  क्या चाहत का है अंजाम यही  सोच रही थी मै  प्यार टूटे तारे सा अस्तित्व विहीन  हो रहा था और भीतर ही भीतर  कंही उजड़ रही थी मै  आवारा बदल से की मैने बरखा की उम्मीद सामने मेरे वो कंही और बरसता रहा अन्तर्घट तक प्यासी खड़ी थी मै  तोड़ दिए सम्बन्ध सारे,बिखरादी ज़िन्दगी मेरी उधेड़ता रहा वो रिश्ते हमारे जिन्हें प्यार से बुन रही  थी मै  कहना चाहती थी मै भी बहुत कुछ तुम से पर शब्द थे कहीं खोगये निःशब्द खड़ी थी मै 
 


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