Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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ये सोच के वीराने में चलता हूँ मै

 
ये सोच के वीराने में चलता हूँ मै बहुत लोगों के दिलों में पलता हूँ मै   चश्मे नूर था मै जिनका कभी आज उस को महफ़िल में खलता हूँ मै   यादों के दंश हर रोज चुभते हैं और सूरज की तरह लम्हा लम्हा जलता हूँ मै  ये सोच के ही महक जाती है सांसे मेरी   कहा उसने के उनके ख्यालों में ढलता हूँ मै  तमाशाए तकदीर किनारे बैठ देखता हूँ के डूब  के उनमे उनसे ही उगता हूँ मै  मुझको छू लें  बे ख्याली में वो शायद  सोच यही बाग़ में उनके खिलता हूँ मै  सजदे करूँ  दहलीज पे कहाँ  किस्मत मेरी  रात में  ख्वाब सा आँखों में मिलता हूँ मै 
 


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