बेटी काजल,
तीन बजे हैं सुबह के
बिस्तर से उठकर आ खड़ा हूँ मैं
अपने बेडरूम की बाल्कनी मे
उदास तारे ताक रहें हैं मुझको
और मैं उनको
तभी एक चमकीले तारे से
उभर आता है उदास चेहरा तेरा
आकाश से धरती को देखता हुआ
धरती जो पीड़ा के आवेश मे आकर
तुमने छोड़ दी
बेटी, मैं पिता नहीं हूँ तेरा
पर तेरे पिता की उम्र का हूँ
शायद उनसे दो-चार साल बड़ा ही
एकतीस दिसंबर की मध्यरात्रि
और पहली जनवरी की पौ फटने से पहले
जो कुछ बीता तुम पर
आंसुओं के अक्षरों से खुदा है वह
मेरे अस्तित्व के सीने पर
उस मनहूस रात को
होटल रामा के रूम न॰111 में
जब नर-पशुओं से घिर गई थी तू
क्यों न शराब की बोतलों से फोड़ डाले सिर उनके तूने ?
क्यों न एक एक कर टेबल से खाली गिलास उठा
उनकी आँखों से चुभा
अंधा कर दिया उन दरिंदों को तूने ?
क्यों न अपने नाखूनों से नोच कर
रक्त-रंजित कर दिया उन लंपटों के चेहरों को ?
क्यों न बन गई तू दुर्गा, क्यों न बन गई तू रणचंडी ?
विश्वास है मुझको
यह सब करने का प्रयास तो किया होगा तूने
तेरे संस्कार ऐसे ही तो थे बेटी।
बचाते-बचाते अपनी अस्मिता
शव बिछ जाता उस कमरे मे तेरा
वासना के गिद्ध
तेरी लाश के साथ बलात्कार करते
तारे छिप जाते , काला हो जाता अम्बर
और फिर मनु के पुत्र मानव की यह दानवता देख
दहल जाता दिल स्रटि के सरजनहार का
और नस्ट कर देता वह अपनी ही बनाई स्रटि को
काश,
ऐसा हुआ होता !
पहली जनवरी के सूर्योदय के बहुत पहले
सोला रोड के पुलिस स्टेशन के बाहर अंधेरे मे खड़ी कार की पिछली सीट पर
सर्दी से ठिठुरते , शर्म से सिमटे ,घावों से रिसते
तेरे निर्वस्त्र शरीर को ओढा दिया था अपना कंबल
जिस पुलिस कर्मी ने
रात-दिन देखता हूँ चेहरा उस देव-पुरुष का मैं
चूमता हूँ उसके चरणों को शीश नवाकर
करता हूँ प्रणाम उस माँ को भी
जिसने अपनी कोख से ऐसा बेटा जना
काश,
मेरे देश का हर बेटा ऐसा होता !
काजल बेटी, सच कहना
क्यों अपने हाथों अपने प्राण लिए तूने ?
क्या इसलिए कि जिससे प्रेम किया
उसीने वासना का ताण्डव किया तेरे जीवन मे ?
क्या इसलिए कि तुझे समाज मे
अपनों के अपमानित होने का डर था ?
क्या इसलिए कि विश्वास न तुझको
अपने समाज और उसके न्याय-तंत्र पर ?
यह सच है कि हम मिडिल क्लास माता-पिता
समाज मे अपनी बदनामी से बहुत डरते हैं
मौन हो अपमानों का गरल-पान करते हैं
यह भी सच है कि देश का न्याय-तंत्र अक्सर बिक जाता है
चाँदी के चंद ( या बहुत से ) सिक्कों के लिए
काश,
परमेश्वर के न्याय-तंत्र मे तो विश्वास किया होता तुमने बेटी !
काजल,
आकाश के जिन देवताओं साथ जा बसी है तू
करना प्रार्थना उनसे
कर दें शाप-मुक्त मेरे देश को
जिसके ऋषियों ने कभी उपनिषदों की ऋचाओं मे गाया था
यत्र नार्यस्तु पुजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता ( जहां होती नारी की पूजा,वास करते वहां देवता )
बेटी, प्रभु देंगे शक्ति तेरे माता-पिता को , बडी बहिन, छोटे भाई को
ताकि लड़ सकें वे इंसाफ की लड़ाई इस धरती पर
मत सोचना काजल कि अकेला है तेरा परिवार इस लड़ाई मे
यह सारा शहर उनके साथ है
उपदेश देना अच्छा नहीं होता
पर क्या करूँ ? पिता हूँ न
मन नहीं मानता
इस खत के जरिये
काजल जैसी अपने शहर की, अपने देश की दूसरी बेटियों को
कह लेने दो मुझको बस इतना ही –
मन छलता है , मन के छलावे मे न आना
विवेक के प्रकाश मे बैठकर जीवन का उत्सव मनाना
स्व्छंदता मन को भाती है ,आनंद भी देती है पल भर
पर शाश्वत सुख मिलेगा तुम्हे मर्यादाओं को गले लगाकर !
Radhakrishna Arora
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