मेरे भीतर बहती है भागीरथी सदा
ठंडा है उसका जल , निर्मल है उसका जल
मेरा थका मन
भारी कदमों से
इस नदी किनारे जा बैठता है अक्सर
बतियाता है नदी से बच्चों की तरह
टेड़े-मेडे सवाल करता है दार्शनिकों की तरह
फिर एक संत की तरह शांत हो जाता है
और लौट आता है दुनियाँ के बाज़ार में
मेरे भीतर गंगा किनारे
एक शिव मंदिर भी है
मृग-चर्म के बिछोने पर , गले में सर्प-माला डाले
मेरे चन्द्रमौलि उसमे सदा विराजमान रहते हैं
दुनियाँ की भीड़ मे जब अकेला पाता हूँ अपने को
चला आता हूँ इस मंदिर मे अक्सर
बैठ जाता हूँ एक कोने में आँखें बंद कर
मेरे भोलेनाथ
अपने आसन से उतरकर मेरे पास आ बैठते हैं
दिल की हर बात पूछते हैं
मैं उनके चरणों मे गिर पड़ता हूँ
मन का हाहाकार आँखों के रास्ते बह निकलता है
और फिर हलका होकर लौट आता हूँ मैं
दुनियाँ के बाज़ार मे
मेरे भीतर एक आश्रम है
घने वृक्षों से घिरा हुआ
आश्रम के बीचों-बीच है एक यज्ञशाला
यज्ञकुंड के चारों तरफ बैठे रहते हैं मेरे गुरुजन
आहुति देते हुए
पवित्र यज्ञाग्नि को रात-दिन
सामवेद की ऋचाओं से गूँजता है आश्रम मेरा
दुनियाँ की धूल से धूमिल हो जाती हैं आँखें जब
चला आता हूँ इस आश्रम मे अक्सर
यज्ञकुंड के पास बैठ जाता हूँ चुपचाप
सामवेद के स्वर शांत कर देते हैं
भीतर के कोलाहल को
यज्ञाग्नि के धुए से धुल जाती हैं आँखें मेरी
और फिर शांत मन, निर्मल आँखें लेकर
लौट आता हूँ मैं
दुनियाँ के बाज़ार में
मेरे भीतर हिमालय है
अपनी पुत्री भागीरथी को गोद में लिए
मेरा मन पलथी मर कर बैठ जाता है अक्सर
इस हिमगिरि की गहरी घाटियों में
कभी इसकी चोटियों पर चढ़कर
आकाश को छूने की कोशिश करता है
कभी इसके घने जंगलों की पगडंडियों पर
चलता रहता है अविराम
तलाशता है उस परमपिता को
जिसकी संतान हूँ मैं
और फिर मेरे कदम कभी नहीं लौटते
दुनियाँ के बाज़ार में
Radhakrishna Arora
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