Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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प्रभु, सच-सच कहना, वो तुम्हीं थे न ?

 

1974॰ तब मेरी पोस्टिंग राजकोट में थी। हम लगभग हर साल दीवाली की छुट्टियों मे अपने होम टाउन ऋषिकेश जाते थे। हरिद्वार तक की सीधी ट्रेन नहीं थी तब। हम दिल्ली मेल से सुबह दिल्ली उतरते , फिर एक घंटे बाद मुंबई से आने वाली देहारादून एक्सप्रेस से हरिद्वार आ जाते। वहाँ से छोटा भाई हमें अपनी कार से ऋषकेश ले जाता। 7-8 प्लेटफॉर्मों का अंतर था जहां हम दिल्ली मेल से उतरते और जिस प्लेटफॉर्म से हमें देहारादून एक्सप्रेस में चढ़ना होता। सामान भी काफी होता था।
उस रोज हमारी गाड़ी लगभग 45 मिनिट लेट दिल्ली पहुंची थी। उतरते ही हमारी बोगी के सामने खड़े एक अधेड़ उम्र के कुली के हवाले सामान किया। उसने बताया—साहब, देहारादून एक्सप्रेस छूटने ही वाली है। आप जल्दी जल्दी चलिये । वह आगे, हम उसके पीछे भागते हुए। मेरी गोद में दो साल की बिटिया, पत्नी के हाथ में एक अटेची और बाकी सात-आठ भारी नग कुली के सिर, बाहों और कंधों पर।
हम जब सही प्लेटफॉर्म पर पहुंचे तो देखा हमारी ट्रेन रेंगने लगी थी, थोड़ी गति भी पकड़ ली थी उसने। कुली ने न आव देखा न ताव,जो डब्बा सामने आया उसके खुले दरवाजे के किनारे पर तेजी से सामान रख दिया,पत्नी के हाथ की अटेची लेकर उसे अपने हाथ का सहारा देकर ऊपर चड़ा दिया, मुझे कहा—साहब, आप जल्दी चड़ जाओ , बच्ची को मुझे दे दो, ऊपर चड़कर ले लेना। बिना अधिक सोचे मैंने वैसा ही किया। ट्रेन ने काफी गति पकड़ ली थे। हम पति-पत्नी बोगी के दरवाजे पड़ खड़े, बिटिया को अपनी गोद में लिए हमारी बोगी की तरफ भागते हुए उस कुली को देख रहे थे। हमारे प्राण अधर में लटक रहे थे। पत्नी गुस्से सी भरी आँखों से मुझे देखती हुई कह रही थी—कैसे बच्ची कुली के हाथों मे दे दी तुमने? देखा नहीं उसकी टोपी को, उसकी दाड़ी को। मुसलमान लगता है। कहीं हमारी बच्ची को...तभी हाँफता हुआ कुली बच्ची समेत ऊपर चड़ आया , बच्ची को मेरे हाथों में सौंपकर नीचे कूद पड़ा। वहीं धम्म से बैठ गया ,हिलाते हुए अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर ,मुस्कराने लगा।
बिटिया सहम-सी गई थी। पत्नी उसे अपनी गोद में लेकर चूमने लगी। उसकी आँखों में आँसू थे। मैं अपनी डबडबा आई आँखों से , बोगी के दरवाजे पर खड़ा , दूर प्लेटफॉर्म पर पलथी मार कर बैठे, अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर मुस्कराते हुए उस देव-पुरुष को देखता रहा। हड़बड़ाहट में उसकी मजदूरी भी तो देना भूल गया था मैं ।
आज 43 साल बाद भी मुस्कराते हुए उस कुली की याद मेरी आँखों को गीला कर देती है। मैं पूछने लगता हूँ अपने परमपिता से—सच-सच कहना प्रभु, वो तुम्ही थे न ?

 

 

Radhakrishna Arora

 

 

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