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जीवन का स्वर मंद न हो

 

पुस्तक समीक्षा : जीवन का स्वर मंद न हो (काव्य संग्रह)

 

 

 

डॉ परमलाल गुप्त हिंदी साहित्य के जानेमाने हस्ताक्षर हैं जोकि अनवरत रूप से अपनी सशक्त रचनाओं एवं कृतियों के माध्यम से हिंदी साहित्य जगत में अपनी एक अलग ही पहचान बनाये हुए हैं | इसी क्रम में आपका दशम कविता संग्रह ‘जीवन का स्वर मंद न हो’ भी है |


पूरा संग्रह मुझे एक विराट कविसम्मेलन की तरह लगता है जिसमें आने वाला श्रोता विविध प्रकार के कवियों से विविध प्रकार की कविताओं की अपेक्षा करता है | इस कविता संग्रह को पढ़ना एक नए अनुभव से गुजरने जैसा है | डॉ गुप्त ने तमाम सामयिक विषयों को समेटते हुए अपने पाठकों की चली आ रही समस्याओं को भी दूर कर दिया है |
पुस्तक की ज्यादातर रचनाएँ गीत विधा में हैं | कुछ मुक्तक, कवितायेँ और अंत में बच्चों के लिए आठ बाल कवितायेँ, यानी लगभग सभी के लिए कुछ न कुछ | कवि ने सरल काव्यात्मक भाषा का इस्तेमाल बड़ी खूबसूरती के साथ किया है | उनके तर्क पाठक को वैचारिक स्तर पे प्रभावित करते हैं | कवि की एक प्रमुख विशेषता उल्लेखनीय है वह यह है कि जो उसने देखा, जो भोगा उसे बड़े अच्छे तरीके से शब्दों में गूंथकर सच्चे मन से प्रस्तुत कर दिया है | उसे यह परवाह नहीं कि कोई क्या कहेगा | उसने हमारे विकास में बाधक समस्याओं से हमें रूबरू करा दिया है जिनके समाधान हमें मिलकर खुद ही खोजने होंगे, कूपमंडूकता से काम नहीं चलने वाला |


‘राजनीति का सत्य’ चतुष्पदियों में कवि ने वर्तमान राजनीति के विकृत स्वरुप पर बहुत करारा व्यंग्य किया है | ‘एकता के प्रश्न’ पर कवि ने इतिहास के पन्नों को हमारे आगे खोलकर रख दिया है, फिर एकपक्षीय समता का क्या मतलब है? ‘विकास की विरूपता’ पर कवि का संवेदनशील मन चिंतित हो उठता है दो पंक्तियाँ उसी के शब्दों में, “एक ओर तो महाशक्ति बन/ भारत जग में उभर रहा है/ आम आदमी ठोकर खाकर / कठिन डगर से गुज़र रहा है !”
‘दल का दलदल’ कविता पढ़ते हुए इंडियाशाइनिंग का नारा बेमानी लगता है | इतनी विडम्बनाओं के होते हुए भी कवि राष्ट्र के उद्धार के प्रति आशान्वित है | इस सन्दर्भ में पृष्ठ-29 पर ‘गीत’ शीर्षक कविता बड़ी अच्छी बन पड़ी है | पृष्ठ-30 पर भी एक ‘गीत’ शीर्षक कविता है जिसे इस पुस्तक का टाइटलगीत भी कह सकते हैं | ‘देहधर्म’ शीर्षक कविता कवि के आध्यात्मिक दर्शन की भावभूमि को व्यक्त करती है, वहीं पृष्ठ-36 का गीत हमें हमें छायावाद की रूहानी वादियों में ले जाता है और पृष्ठ-37 के मुक्तक डॉ रामप्रसाद की उक्ति ‘....राष्ट्रवाद की टेक’ को सिद्ध करते हैं | ‘जीवनज्ञान’ जीवन को देखने का कवि का अपना नज़रिया है | ज्ञान इसलिए क्योंकि इसमें कवि के अनुभव शामिल हैं |


‘आज की राजनीति’ में विचारधाराएँ कहाँ हैं ? कुछ व्यंग्य टाइप कवितायेँ इस बात पर भी हैं | कवि के इस लपेटे में ‘आज की मीडिया’ भी आ गयी है |


डॉ गुप्त अपनी कविता में विविध प्रयोगों को करने में सिद्धहस्त हैं | कवि अपनी भाषा व संस्कृति को सर्वोपरि मानता है | वह अंग्रेजी का विरोधी नहीं परन्तु उसके लिए हिंदी पहले है अंग्रेजी बाद में | कवि का समस्त कृतित्व हिंदी में है | यह भी सर्वमान्य तथ्य है कि हमारी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हिंदी में ही हो सकती है | उसकी ‘अंग्रेजी माध्यम 1 व 2’ शीर्षक कवितायेँ भारतेंदु बाबू के इस कथन को बल देतीं हैं कि ‘विदेशी भाषा, विदेशी वस्तुओं का भरोसा मत करो, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति में उन्नति करो !’


कवि व्यवस्था परिवर्तन के लिए जन-मन में क्रांति को आवश्यक मानता है, यह क्रांति कैसे हो सकती है इसका हल ‘क्रांति कैसे’ कविता में है | कवि की ‘इंडिया’ कविता भी इसी क्रम में है | उसे अपने राष्ट्र की दुर्दशा देखी नहीं जाती और फिर बरबस उसकी कलम में कुछ न कुछ निकल ही पड़ता है | आखिर हमारी प्रगति कहाँ रुकी हुई है ? हम विदेशी नक़ल कर-करके अपना मौलिक चिंतनधारा को खोते जा रहे हैं | कवि का सन्देश है कि अगर हम इन सब समस्याओं को दूर कर लें तो अपने देश को पुनः विश्वगुरु बनने से कोई नहीं रोक सकता |


कवि का सपना भारत देश को स्वतंत्र हिन्दूराष्ट्र के रूप में देखने की है इसलिए कुछेक कवितायेँ लोगों को अखर सकतीं हैं, हालांकि कवि की मूलभावना सांप्रदायिक सदभाव की ही है |


समीक्ष्य संग्रह की सभी कविताओं में ताजगी है, नया स्वर है | बहुत दुरूह शब्दों का प्रयोग कवि ने नहीं किया है जिससे इस कृति की उपयोगिता और अधिक बढ़ गयी है | हम अपनी जगह पर सही रहें, सही सोचें, सही करें व जीवन की गतिशीलता के साथ गतिमान रहें, संग्रह का मूलसंदेश यही है |


पुस्तक का कलेवर छोटा है | सहेजने, समझने लायक काफी कुछ है इसमें, मूल्य भी अन्य की तुलना में काफी कम | निश्चय ही अच्छे काव्य को चाहने वाले पाठकों को इसे अवश्य ही पढ़ना चाहिए |

 

 

समीक्ष्य पुस्तक : ‘जीवन का स्वर मंद न हो’ (काव्यसंग्रह)
रचनाकार- डॉ परमलाल गुप्त
प्रकाशक-पीयूष प्रकाशन, सतना (म.प्र.)
पृष्ठ-128 मूल्य-50/-
समीक्षक- राहुल देव, सीतापुर |

 

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