सन् सनन् करता सन्नाटा
अक्स ढूँढता आया मेरा
अद्भूत विशाद भरा अंधियारा
गलियारोंसे छुपा सवेरा...
रूह कांपकर खूँ का जमना
अंतरजाल का भी कंपकंपाना
छलविभोर हैं काली घटायें
प्रतिशोध से दिल थर्राना....
शून्य विशाल यह मनोकामना
कटपूतली सा बना है जीवन
निष्प्रभ निर्बल से निर्ममसा
ईन्सानोंका यह संबोधन.....
मुझे नही भाँता यह खंडहर
यहाँ लिप्त मैं, मेरी आत्मा भी
मैं तो हूँ वह रमता जोगी
जिना चाहूँ और मरना भी.....
- राज.
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