छापने से लगातार इंकार किए जाने के बाद शयर शम्स अतिउल्लाह ‘केशर’ को समझ में नहीं आ रहा था कि ‘मीर तकी मीर’ की करूणा, भावों की तरलता और दिल में उतर जाने वाली सादगी से ओत-प्रोत उनकी शेरों और गजलों को क्यों तकरीबन सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने
की जगह नहीं दी जा रही है.
शम्स अतिउल्लाह ‘केशर’ खूद को मानते थे कि उनमें अनुभूति की असाधारण तीव्रता के साथ-साथ कल्पना की अफलातूनी उड़ान भी है. वैचारिक तल्लीनता और समर्थ भाषा शैली की तो बात ‘केशर’ के सभी शेरों और गजलों में भरे पड़े है. ‘केशर’ साहब का मानना है कि जहां उनमें ‘मोमिन’ के साधारण को असाधारण बना देने की सलाहियत है वहीं ‘दाग देहलवी’ के गजल की शोखी और रंगीनी उनके शेरों में देखा जा सकता है. खूद को उस्ताद शायर ‘जौक’ का शार्गिद बताने वाले शम्स अतिउल्लाह ‘केषर’ आजकल के तथाकथित साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों से सख्त नाराज नजर आते है क्योंकि उनके शेरों और गजलों को एक तरह से सभी ने छापने से
इंकार कर दिया है.
‘केशर’ साहब ने एक गजल लिखा जिसका हर शेर ‘केषर’ साहब के अनुसार सीधा दिल
में उतर जाने वाला है. उन्होंने शेर सुनाया कि
‘देख मुझे हम किस तरह के है आदमी
गम को बना के मेहमां कलेजा खिला दिया’
ऐसे अशआर को जब केशर साहब ने प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘कायनात’ को भेजा तो पत्रिका के संपादक महोदय ने गजल को वापस भेजते हुए लिख भेजा कि मुआफी चाहता हॅूं, शेर में फिक्र की
कमी है इसलिए इसका इस्तेमाल पत्रिका में नहीं किया जा सकता.
अब केशर साहब तो आग बबुला हो गए, अपने शेर में फिक्र की कमी, लाहोलबिला कुव्वत!
कौन बनाया ऐसे लोगों को संपादक ? पूछते रहते है मिलने वालों से केशर साहब.
खैर उन्होंने एक दूसरा शेर लिखा कि,
‘क्या खूब है उनका ये अंदाजे भ्रष्टाचारी
वे बैठ कर खाते रहते है फंड सरकारी ’
और एक दूसरी पत्रिका ‘कयामत’ को भेज दिया. संपादक महोदय ने जवाब दिया कि आज के राजनीतिक परिवेष पर लिखा गया अच्छा शेर है परंतु खेद है कि हम सिर्फ ‘असफल प्रेम की पीड़ा’ पर ही शेर छापते है इसलिए केषर साहब मैं आपके उपरोक्त शेर को अपने पत्रिका में नहीं छाप
सकता.
केषर साहब अब बड़े परेषान रहने लगे थे. एक दिन उन्हें ‘कायनात’ पत्रिका के संपादक के इल्म और उनकी गजलों की सलाहियत मापने के लिए एक चाल चली. केषर साहब ने उस्ताद
शायर ‘जौक’ का एक प्रसिद्ध गजल के दो-चार शेरों जैसे,
लायी हयात आए कजा ले चली चले
अपनी खूषी न आए न अपनी खूषी चले
कम होंगे इस विसात पे हम जैसे बद-किमार
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले
दुनिया ने किसको राहे-फना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यंू ही जब तक चली चले
को अपना कहते हुए ‘कायनात’ के संपादक महोदय को भेज दिया. संपादक महोदय का कुछ दिनों बाद जवाब आया कि गजल तो अच्छी बन पड़ी है, हां रदीफ-काफिये की इतनी सादगी अच्छी नही होती. खारिजी शायरी का सतहीपन और दिखावा आपके अंदाजे बयां पर हावी हो गया है
इसलिए गजल का प्रयोग हम अपनी पत्रिका में नहीं कर पायेंगे.
शम्स अतिउल्लाह ‘केषर’ को समझ में आ गया था कि उनकी शयरी खारिजी शायरी नहीं है बल्कि संपादक महोदय को ही शेर और गजल समझने का इल्म नहीं. ‘जौक’ जैसे प्रसिद्ध शायर के गजल को संपादक महोदय पत्रिका में फलां-फलां कारण से नहीं छाप सकते, तो फिर मेरी क्या औकात है.
बहरहाल केशर साहब ने संपादक महोदय को लिख भेजा, हुजूर मुझे खेद है कि आपने उस्ताद शायर जौक लिखित प्रसिद्ध गजल में रदीफ-काफिये की सादगी को नहीं समझ पाए और खारिजी शायरी का सतहीपन और दिखावा कह कर छापने से इंकार कर दिया. लिहाजा अब मैं अपने अशआर आपको नहीं भेज सकता क्योंकि आपमें शेर और गजल समझने की बुनयादी सोच
की कमी है.
स्ूाना है ‘केषर’ साहब अब छपने के ख्वाहिषमंद नहीं रहे बल्कि दीवान-ए-गालिब के तर्ज
पर अपना ‘दीवान-ए-केशर’ छपवाने की जुगत में लगे हुए है.
राजीव आनंद
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