Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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गांवनामा

 

अपने गांव को देखकर
खून के आंसू रोता हॅंू
हरियाली ही हरियाली थी जहां
अब काले-पिले धुंआ में सोता हॅंू

 

चिमनियों का काला गाढ़ा धुंआ
ले चुका है पूरे गांव को अपने जद में
हम अभागे गांव के वाशिदों का
अकाल मृत्यु होना तय है गांव के सरहद में

 

हरे-हरे गेहूं के बालियों से भरे खेत
पास ही पानी का सोता बहता हुआ
घने आम के दरख्तों के साये तले
याद आता है बिरजुआ सोता हुआ

 

उड़-उड़ कर आते थे आंगन में
गौरैया, कबूतर, सूगा और मैना
कभी आलीशान रहे हमारे घर की
पक्षियां ही तो थीं अनमोल गहना

 

पोखरे से बाहर मछलियां कूदती हुयी
खेल था मछलियों को पोखरे में फेंकना
दिलचस्प था लोगों के लिए मछलियों को
बिल्लियों से बचाते हुए देखना

 

काले-काले कोयले के बुरादों से
ढ़ंक चुका है मेरा गांव पूरा
रसायनों की वारिश होती है
धीमी जहर से मर रहा है गांव मेरा

 

हरे-भरे दरख्तों को काटकर
छड़ की फैक्टरियां लगा दिया
करखानों की भठिठ्यों में
गांव की विरासत जला दिया

 

दरख्तों के साये में पानी का सोता
सूख गया दरख्तों के काटे जाने के बाद
खड़ी हो जाती है महिलाएं पक्तियों में
चपाकल से पानी टपकने के बाद

 

मवेशियां मर रहें है हर रोज
चर कर चारागाह से आने के बाद
मरते जाना ही बन गयी नियति
लोहे के चने चबाने के बाद

 

 

 

राजीव आनंद

 

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