जो साहित्य में रमा उसके लिए साहित्यिक रचनाओं के पात्रों से कुछ ऐसा आत्मिक संबंध बन जाता है िक वह उन पात्रों की अनदेखी नहीं कर सकता. मैंने जब सक्ूल और काॅलेज के दिनों में प्रेमचंद, भुनेश्वर, फनीश्वरनाथ रेणु, मुक्तिबोध को पढ़ा तब से आजतक मुझे उक्त लेखकों के पात्रों से एक आत्मिक संबंध सा बन गया लगता है, मैं प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की अनदेखी कर सकता हॅंू पर घीसू, होरी, माधो, सिकन्दर, निरधन साहू, शरदेन्दु बनर्जी, दीदीजी और मृणाल जैसे पात्रों की अनदेखी नहीं कर सकता. ये पात्र और इनके जैसे अनगिनत पात्रों के साथ ही मैं जीता हॅंू.
यहां मैं फनीश्वरनाथ रेणु द्वारा गढ़े कुछ ऐसे पात्रों का जिक्र करूंगा जिनमें एक दुर्दम्य जिजीविषा देखने को मिलती है, जो गरीबी, अभाव, भूखमरी, प्राकृतिक आपदाओं से जुझते हुए मरते भी है पर हार नहीं मानते है. रेणु के सन् 1944 में प्रकाषित एक कहानी है ‘बट बाबा’ जिसका एक पात्र है निरधन साहू, जो खूद कालाजार बीमारी से कंकाल हो गया है जब सूनता है कि बड़कवा बाबा यानी बरगद का प्राचीन पेड़, सूख गेइले का ? और गांव वाले जब उसे बताते है कि हां पेड़ सूख गया है तो निरधन साहू कहता है - अब न बचब हो राम ! गौर करने की बात है कि निरधन साहू जिसे कालाजार जैसी खतरनाक बीमारी परास्त नहीं कर सकी उसे बरगद के प्राचीन पेड़ के सूख जाने के गम ने मारा. भवानात्मक रूप से कितना संवेदनषील पात्र गढ़ा था रेणु ने जिसके साथ पाठक का आत्मिक संबंध बन जाना स्वाभाविक सा लगता है.
रेणु द्वारा लिखित कहानी ‘कलाकार’ का पात्र शरदेन्दु बनर्जी जो एक निराला, अलबेला, विरक्त कलाकार है जिसके पूरे परिवार को दुर्भिक्ष ने मार डाला. यही कलाकार दुर्भिक्ष पीड़ितों के सहायता के लिए पोस्टर बनाकर जिंदा रहा, धन-दौलत की लालच से दूर यह कलाकार सौ फिसदी मनुष्य था. रेणु ने इस खालीष आदमी का चित्रण बहुत ही तन्मयता से किए थे जो अपने निराला और अलबेलापन से किसी भी पाठक के हदय में जगह बना लेता है. रेणु की एक अन्य कहानी ‘प्राणों में घुले हुए रंग’ का एक पात्र एक चिकित्सक है जिसे रेणु के कालजयी उपन्यास ‘मैला आंचल’ में डा. प्रषांत के रूप में देखा जा सकता है. डा. प्रषांत ‘मैला आंचल’ का ऐसा पात्र है जिसके साथ समय बिताया जा सकता है तथा डा. प्रषांत का महत्व तब और बढ़ जाता है जब हम आज के डाक्टरों से मिलते है और पाते है कि अधिकांष डाक्टर ‘हेपोक्रेटिक ओथ’ का भूलकर डाक्टरी कर रहे है. ऐसे डाक्टरों को देखकर बरबस डा. प्रषांत की याद हो आती है और हदय यह कामना करने लगता है कि काष् अगर आज के डाक्टरों में डा. प्रषांत का कुछ फिसदी गुण भी आ जाता तो अनगिनत मरीज बेमौत नहीं मरते. दिल रेणु द्वारा गढ़े गए पात्र डा. प्रषांत के जीवन्त होने की कामना से भर जाता है. रेणु द्वारा गढ़ा गया एक अन्य महत्वपूर्ण पात्र उनकी कहानी ‘रसूल मिस्त्री’ में इसी नाम से आता है, जो दूसरों के लिए जीता है. इस कहानी को पढ़ते हुए प्रसिद्ध रोमन कथाकार दांतें की ‘डिवाइन कामेडी’ की याद बरबस हो आती है जब रसूल मिस्त्री कहता है कि दोजख-बहिष्त, स्वर्ग-नरक सब यहीं है. अच्छे और बुरे का नतीजा तो यहीं मिल जाता है. दूसरों के लिए अपना जीवन व्यतीत करने वाला रसूल मिस्त्री के दूकान के साइन बोर्ड पर किसी ने लिख दिया है ‘यहां आदमी की भी मरम्मत होती है’’. रसूल मिस्त्री जैसे पात्र के साथ अपनापन सा होने लगता है खस कर आज के दौर में जब सभी अपने लिए जी रहे है, कोई बिना मतलब दूसरे से बात भी नहीं करता. ऐसी परिस्थिति में रसूल मिस्त्री जैसा पात्र मेेरे सामाजिकता को प्रभावित करता सा लगता है.
कहने को तो बहुत कुछ है पर जगह की कमी रहने के कारण बस इतना ही.
राजीव आनंद
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