महान उपन्यासकार प्रेमचंद के समकालीन भूनेष्वर प्रसाद श्रीवास्तव नये नाटक के रचनाकार कहे जाते है क्योंकि इन्होंने परंपरा से चले आ रहे नाटक की कथ्य और षिल्प, दोनों स्तर पर नया रूप दिया. भूनेष्वर के प्रांरभिक एकांकी फ्रायड के मनोविष्लेषणवाद तथा अंग्रेजी साहित्य से प्रभावित रहा है परंतु बाद में लिखे गए नाटक नया रूप ग्रहण करता गया.
भूनेष्वर ‘कारंवा’ के प्रवेष में स्वयं लिखा है कि प्राय समस्त नाटककार जो पेटीकोट की शरण लेते है, दो पुरूषों को एक स्त्री के लिए आमने-सामने खड़ा करके संघर्ष उत्पन्न करते है. मैंने केवल बुलडोग के मुख से हड्डी निकाल कर अलग फेंक दी है अर्थात इन्होंने अपने नाटकों में यौन भावना को अष्लीलता के निम्न स्तर से अलग रखा है. भूनेष्वर ने अपने एकांकियों में यौन भावना और स्त्री-पुरूष संबंधों का विष्लेषण, स्थितियों और संकेतों के माध्यम से किया है परंतु कहीं भी स्थूल कथ्य को बढ़ाने का प्रयत्न नहीं किया है.
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के समकालीन रहे भूनेष्वर प्रसाद श्रीवास्तव को आज प्राय अनदेखा किया गया है जबकि भूनेष्वर आज भी उतने ही प्रांसगिक है जितने वो प्रेमचंद के कालखंड़ में थे. प्रेमचंद की महानता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भूनेष्वर मूलतः एक नाटककार के रूप में उभरे जो प्रेमचंद की मूल विद्या नहीं थी फिर भी नये लेखकों को सामने लाने के अपने आदर्ष और उदारवादी रवैये के कारण प्रेमचंद ने भूनेष्वर को अपनी पत्रिका ‘हंस’ में छापते रहे तथा जब ‘कांरवा’ मार्च 1935 में छपा तो प्रेमचंद ने ‘हंस’ में विस्तृत समीक्षा खूद लिखे जिसका ऐतिहासिक महत्व है. प्रेमचंद समीक्षा में लिखते है कि ‘ एक साम्यहीन साम्यवादी’ के सिवा प्रायः सभी नाटकों ‘ष्यामा’, ‘षैतान’, ‘प्रतिभा का विवाह’, रोमांस-रोमांच’, और ‘लाॅटरी’ में एक ही विचार कुछ बदले हुए रूपों में काम कर रहा है अर्थात वैवाहिक जीवन का काला सच. जितनी स्त्रियां आयी है सभी अपने शौहरों से बगावत किए बैठी है, सभी किसी दूसरे आदमी से सांठ-गांठ करती है और खुल्लम-खुल्ला करती हैं. अगर ये विचार आॅस्कर वाइल्ड इत्यादि पष्चिमी साहित्यकारों के प्रभाव में आए है तो गनीमत है लेकिन अगर ये विचार खूद लेखक भूनेष्वर के है तो डरावने है. हमारे जीवन में गुप्त रहस्यों, प्रेम और भावुकता की आड़ में छिपे हुए मनोविकारों पर ऐसा निर्दय प्रकाष लेखक भूनेष्वर ने डाला है कि उनकी ओर ताकते हुए डर लगता है.’’
भूनेष्वर की शैली का अंदाजा ‘कांरवा’ से पता चलता है जिसमें भूनेष्वर ने ‘कांरवा’ को प्रेमचंद को समर्पित करते हुए कुछ यूं लिखा है कि ‘‘मैं अपनी इस प्रथम छपी हुई कृति के साथ अमर कथाकार श्री प्रेमचंद का नाम जोड़कर अपने आपको उनका आभारी बताता हॅंू.’’ भूनेष्वर समग्र के संपादक दूधनाथ सिंह कहते है कि ‘‘क्या यह समर्पण है ? या प्रेमचंद के प्रति आभार व्यक्त करने का नायाब तरीका है ? जो भी हो सामान्यत समीक्षक प्रेमचंद से यह आषा की जा सकती है कि उसने आभार व्यक्त करने वाले की अगर तारीफ नहीं की होगी तो भी कुछ नर्मी तो जरूर बरती होगी लेकिन आष्चर्य है कि प्रेमचंद ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. अपने निर्माण के प्रति वे समीक्षा में काफी कठोर दिखते है. यह भी कहा जा सकता है कि उनकी समीक्षा में एक ऐसा जबर्दस्त संतुलन है कि देखते ही बनता है और आज के समीक्षकों और व्याख्याकारों के लिए
वह एक मानक है.’’
भूनेष्वर ने प्रेमचंद द्वारा दिए गए सलाह कि अपनी कटुता को कम करें को न मानते हुए एक गृहहीन, विक्षिप्त जीवन जीते हुए अपने अंदर के लेखक और अपनी भाषा के ओज व्यंग्य, उपहास और यथार्थ को सुरक्षित रखा और अपनी ‘कटुता’ के कारण ही अमर षिल्पी बन पाए. हिन्दी साहित्य की यह त्रासदी ही है कि भूनेष्वर की मृत्यु कब और कहां हुई इसे कोई नहीं
जानता. किसी साहित्यकार की अवहेलना का इससे बेहतर उदाहरण और क्या होगा ?
भूनेष्वर ने ‘मृत्यु’, ‘सवा आठ बजे’, ‘आदमखोर’, ‘कठपुतलियां’, ‘फोटोग्राफर के सामने’, ‘तांबें के कीड़े’, ‘इतिहास की केंचुल’, ‘आजादी की नींद’, ‘जेरूसेलम, ‘सिंकदर’, ‘अकबर’, ‘चंगेज खां’,, ‘सींको की गाड़ी’, ‘उसर’ और ‘खामोषी’ नामक एकांकियां, तीन आॅस्कर वाइल्ड लिखित नाटकों का ‘एक विषाक्त घटना’, किन्नरी’, ‘राजा का प्रेम’ नाम से तथा एक गोगोल लिखित ‘इंस्पेक्टर जेनरल’ के नाम से अनुदित किया था. इसके अतिरिक्त भूनेष्वर ने कोई
छह कवितांए तथा बारह कहानियां भी लिखा था जो प्रेमचंद की पत्रिका ‘हंस’ में छपी थी.
प््रसिद्ध साहित्यकार शमषेर बहादुर सिंह ने साहित्य में भूनेष्वर का स्थान सुरक्षित और स्थायी बताते हुए कहते है कि भूनेष्वर के साहित्य की सूझ इतनी परिमार्जित थी कि किसी विद्वान से तुलना की जा सकती थी. भूनेष्वर आज नही है लेकिन वो कवि, कहानिकारों और एंकाकीकारों में जिन्दा है. भूनेष्वर के स्तर के उच्चकोटि के ईमानदार लेखक कम हुए है क्योंकि वे किसी बात में धपला नहीं करते थे, उन्होंने पूरी गंभीरता और ईमानदारी से अपनी राय दी है. शमषेर बहादुर सिंह का मानना है कि भूनेष्वर जैसी प्रतिभा पैदा नहीं की जा सकती, ये ‘रेयर’ होती है. एकांकी
का पूरा इतिहास भूनेष्वर पर आकर ठहर जाता है.’’
क्या भूनेष्वर आज भी प्रांसगिक है ? इस प्रष्न का उतर उनके सन् 1946 में लिखे नाटक ‘तांबे के कीड़े’ में तलाषा जा सकता है, जो द्वितीय विष्वयुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है परंतु पढ़ने पर आज भी उतनी ही प्रांसगिक लगती है. ‘तांबे के कीड़े’ के पात्र वैसे व्यक्ति है जो भय और भ्रम में जी रहे है, जीवन की लड़ाई लड़ते-लड़ते थक चुके है. वे अपने को अकेला, असमर्थ, असहाय समझते है और किसी सहारे की, अवलंब की तलाष में जुटे है. पागल आया ऐसे ही व्यक्ति का प्रतीक है, वह अपना खोया हुआ भाई, जाॅन बाबा, मषालची बाबा की तलाष कर रही है. मषरूफ पति समाज के उन पुरूषों का प्रतीक है जो विघटित मानसिक मनोवृति का षिकार है. परेषान रमणी आज की नवयुवती आधुनिकता की प्रतीक है जो केवल यौन तृप्ति चाहती है वह भी समाज से छिपकर और बच्चों का बोझ नहीं उठाना चाहती. थका हुआ अफसर सरकारी कार्यालयों में काम करने वाले अवसादग्रस्त अधिकारियों का प्रतीक है जो कार्यालय में काम करते-करते थक जाते है, उब जाते है और जिसके मन में बेकार के विचार चक्कर काटते रहते है. रिक्षेवाला मजदूर वर्ग का प्रतीक है, उसके द्वारा अफसर की हत्या करवाकर नाटककार संकेत देता है कि मजदूर वर्ग जाग रहे है, आज की व्यवस्था से संघर्ष कर रहे है तथा अफसरषाही, लालफीताषाही, नौकरषाही को समाप्त करके ही दम लेंगे.
‘तांबे के कीड़े’ नाटक में महिला अनांउसर झुनझुना बजाकर कहती है, ‘‘हम अपनी आत्मा से रचते है और शरीर से नाष कर देते है कि फिर अपने सत्य से उसे सजाएं.’’ इस कथन से नाटककार कितनी गूढ़ बात कहने की कोषिष किया है कि संसार में विनाष-निर्माण की प्रक्रिया सदा चलती रहती है. आत्मा में करूणा, दया, प्रेम होता है, सत्य आत्मा की शक्ति है जिससे विध्वंस में निर्माण किया जा सकता है.
इसी नाटक में रिक्षेवाला से नाटककार ने एक संवाद बुलवाया है कि ‘‘ बादलों ने सूरज की हत्या कर दी, सूरज मर गया.’’ नाटककार ने उक्त संवाद के माध्यम से बताना चाहता है कि अज्ञान, भौतिकता, संकुचित दृष्टिकोण ने हमारे विवके को नष्ट कर दिया है और सूरज मर गया, का भावार्थ है जीवन शक्ति का न रहना, जिसके फलस्वरूप आज के व्यक्ति भयभीत, निराष है और जीवन को निरर्थक समझते है. आज का मनुष्य अपने भविष्य के प्रति संषक और भयभीत है. इस तरह ‘तांबे के कीड़े’ में प्रतीकों का प्रयोग कर नाटककार ने कथ्य को बहुआयामी बनाया है तथा स्पष्ट संकेत दिया है कि मनुष्य जो भौतिकवादी दृष्टिकोण अपनाया है वही मानवजाति के ध्वंस का कारण बनेगा.
आज के युग में हम पाते है कि मानव शरीर धारण किए हुए पषुओं की संख्या अधिक है. ये स्वार्थी, संकीर्ण मनोवृति वाले अंहग्रस्त व्यक्ति ही शासक बने हुए है. इस विषम मानव अस्तित्व के लिए घोर संकट के क्षणों में आवष्यकता इस बात की है कि हम करूणा, दया, प्रेम, सौहार्द्र, परदुखकातरता के भाव अपनाएं अन्यथा हम भटकते रहेंगे अपनी और दूसरों की जिन्दगी को लाष की तरह ढोते रहेंगे. आत्मा की शक्ति जो सद्वृति, संवेदनषीलता, भावुकता, कोमल भावनाओं में
नीहित है, को पहचाने यही संदेष दिया है एंकाकी के जनक भूनेष्वर ने अपने एंकाकीयों के माध्यम से. सचमुच कितने प्रांसगिक है आज भी भूनेष्वर प्रसाद श्रीवास्तव.
राजीव आनंद
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY