बचपन से ही निडर और साहसी तेलंगा खड़िया युवा होते-होते एक बहादुर योद्धा के रूप में सामने आया और अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने लगा। आज के गूमला जिले के मूरगू गांव में एक साधारण किसान हुईया खडिया एवं पेतो खड़िया के यहां तेलंगा खड़िया का जन्म फरवरी 1806 ई. में हुआ था।
श्याम वर्ण का लंबा-छरहरा तेलंगा देखने में एक खूबसूरत नौजवान था। नीडर तो बचपन से ही था। अपने साथियों के साथ आसपास के जंगलों में तेलंगा निर्भीक घूमा करता था। कहते है एक बार तेलंगगा अपने साथियों के साथ जंगल से घर लौट रहा था, राह में शाम हो गयी थी, अभी गांव के मुहाने पर पहंुंचने में कुछ देर थी कि तेलंगा के साथियों ने अंधेरे में दो चमकती आंखें देखकर भयभीत हो गये और तेलंगा को पूकारने लगे थे। तेलंगा के साथियों ने मारे भय के तेलंगा को घेर लिया था। तेलंगा समझ गया था कि दो चमकती आंखें बाघ की है जो घात लगाए अपने शिकार को देख रहा था। तेलंगा को अपनी फिक्र नहीं थी, वह सोच रहा था कि उसके किसी भी साथी को कुछ होना नहीं चाहिए, नहीं तो उसके साथियों के माता-पिता को वो क्या जबाव देगा। तेलंगा अपने बल और बुद्धि से परिस्थिति को भांफ गया और अपने छहवों साथियों को पेड़ पर चढ़ जाने को कहा। तेलंगा के सभी साथी भय से कांप रहे थे, गहराती शाम वातावरण को और भी डरावना बना रही थी। तेलंगा ने अपने सभी साथियों को सहारा दे-देकर पेड़ में चढ़ा दिया था। सरगोशियों से बाघ चैंकना हो गया और एक लंबी छलांग मार कर तेलंगा, जो अभी तक पेड़ पर नहीं चढ़ पाया था, को अपने पंजों से दबोच लिया था। तेलंगा बड़ा ही चुस्त और ताकतवर था उसने बाघ के अगले दो पंजों को अपने हाथों से पकड़ लिया और कहते है कि तेलंगा की पकड़ बाघ पर इतनी मजबूत थी कि बाघ हिल नहीं सका। सूनने में यह असंभव सा जान पड़ता है परंतु है यह सत्य। शुद्ध हवाओं में जीने वाला तेलंगा, दूध और दही का सेवन करने वाला तेलंगा और जंगलों को अपने पैरों से रौंदने वाला तेलंगा की बाहों में बाघ से ज्यादा ताकत होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। बाघ पर तेलंगा ने काबू पा लिया था। अगर चाहता तो वह बाघ को अपने कमर में लटक रहे छूरे से मार भी सकता था परंतु तेलंगा था बड़ा दयालु। बाघ को कमजोर पड़ते देखकर तेलंगा को अपनी ताकत पर घमंड़ नहीं हुआ बल्कि बाघ पर दया आ गयी तथा बाघ को तेलंगा ने भाग जाने का मौका दे दिया था। बाघ जिस तरह छलांग लगा कर तेलंगा पर झापटा था उसी तरह छलांग लगाकर जंगल के अंधेरे में भाग खड़ा हुआ।
तेलंगा के साथी उसे कोस रहे थे कि हाथ आए बाघ को उसने क्यों जाने दिया ? बाघ के सामने तो सभी की घिग्घी बंध गयी थी और जब बाघ पर तेंलगा ने काबू पा लिया तो तेलंगा के सभी साथी शेर बन गए थे। तेलंगा अपने साथियों को समझाया कि कमजोर पड़े इंसान या जानवर को माफ करना सीखो। माफ करना ताकतवरों का कार्य है, कमजोर माफ करना नहीं जानते। अब देखो बाघ तो भाग गया, तेलंगा ने अपने साथियों को कहा और तुमलोग जानते हो बाघ मुझे पहचान गया है अब कभी वह हमलोगों पर हमला नहीं करेगा। तेलंगा अपने साथियों के साथ गांव पहुंच चुका था। गांव के लोगों को तेलंगा पर इतना विश्वास था कि अगर तेलंगा साथ है तो कोई फिक्र की बात नहीं है और इसी विश्वास को कायम रखने के लिए तेलंगा बाघ से लड़ने के लिए तैयार हो गया था।
जंगल में फैले चारों तरफ उंचे-उंचे सखूआ, पलाश, देवदारों के घने दरख्तों से छन-छन कर आती सूरज की किरणों को अपलक निहारना तेलंगा का सूबह का मुख्य शगल था। जंगल के बीचोंबीच स्थित जलप्रपात के चट्टानों पर लेट कर बांसूरी बजाना तेलंगा का दूसरा मुख्य शगल था। धूप में बदन को तपते छोड़कर बांसूरी की धून जब तेलंगा छेड़ता था तो मानो जंगल के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सभी मंत्रमुग्ध हो जाते थे। गांव के युवतियाॅं झूंड़ बना कर जलप्रपात में स्नान करने और जंगल से फलों को तोड़कर ले जाने के लिए प्रतिदिन आती और तेलंगा के बांसूरी के धूनों को सूनती ही रह जाती। गांव की ये बालाएं मन ही मन सोचा करती थी कि तेलंगा किसका पति बनेगा, सभी बालाओं में तेलंगा को रिझाने की होड़ सी लगी रहती पर तेलंगा था कि बालाओं से दूर-दूर ही रहता।
एक दिन यूं हुआ कि तेलंगा अपने धून में बांसूरी चट्टान पर लेट कर बजा रहा था कि उसे ‘बचाओ-बचाओ’ का कोलाहल सूनाई दिया। तेलंगा ने बांसूरी बजाना बंद कर आ रहे कोलाहल की तरफ अपने कान लगा दिए, आवाज जिधर से आ रही थी उधर देखता है कि झरने के उपर से आठ-दस युवतियां ‘बचाओ-बचाओ’ चिल्ला रही है और नीचे गिर रहे जलप्रपात की ओर इशारा कर रही है। तेलंगा समझ गया कि इनमें से कोई युवती जलप्रपात में गिर गयी है। तेलंगा जलप्रपात में डूबती एक युवती को देखा और बस तेलंगा बिना समय गवाएं जलप्रपात में छलांग लगा दिया। कहते है उस जलप्रपात की गहराईयों को सदियों से आज तक कोई माप नहीं सका था। तेलंगा को इसकी फिक्र कहां थी, वह तो योद्धा था, तैरने में निपुण। अपने फौलादी बांहों से जल के वेग को चिरता वह तेजी से बहती जा रही युवती के करीब बहुत ही जल्द पहुंच गया और देखते ही देखते तेलंगा की बांहों में थी वह युवती। पानी से बाहर लाकर चट्टान पर लिटा चुका था उस युवती को तेलंगा, तब तक उस युवती की सहेलियां वहां पहुंच चुकी थी और रतनी-रतनी कह कर उसे घेर लिया। तेलंगा को पहली बार किसी युवती को अपने बांहों में उठाने का अवसर मिला था, किसी युवती को इतनी नजदीकियों का एहसास शायद पहली बार हुआ था तेलंगा को, उसे एक अदभूत सिहरन सी महसूस हो रही थी अपने शरीर में।
जिसे रतनी-रतनी कह कर पुकार रही थी उसकी सहेलियां वो अब होश में आने लगी थी, रतनी ने मुंह से पानी की उल्टियां की और थोडी देर में उठ कर बैठ गयी। तेलंगा पहली बार किसी युवती को इतने गौर से देखा था। रतनी के श्यामल रूप में एक अदभूत आकर्षण था जो तेलंगा को अपनी ओर खींच रहा था परंतु वह जड़ बना बस रतनी को निहार रहा था। रतनी को जब पता चला कि उसे तेलंगा ने जलप्रपात में डुबने से बचाया है तो रतनी के मन में तेलंगा के प्रति एक आकर्षण जागता हुआ सा लगा। रतनी सोचने लगी कि काश उसकी सहेलियां अगर अभी साथ नहीं होती तो ढेर सारी बातें वो तेलंगा से करती, उधर तेलंगा की भी कुछ ऐसी ही इच्छा हो रही थी। काफी समय बीत चुका था रतनी अब बिल्कुल ठीक महसूस कर रही थी, वह उठ खडी हुयी और पास खडे तेलंगा के समीप जा कर कहा कि ‘‘अगर आज आप यहां नहीं होते तो मैं मर गयी होती।’’ तेलंगा रतनी की मधुर सुरीली स्वर को सुनकर जैसे मंत्रमुग्ध सा हो गया था। तेलंगा ने कोई जबाव नहीं दिया, सिर्फ खडा-खडा रतनी को देखता रहा।
रतनी अपने सहेलियों के साथ गांव की ओर चली गयी। तेलंगा रतनी के जाने के बाद भी अपने बांसूरी के साथ वहां काफी देी तक बैठा रहा, अपने अंदर तरह-तरह के ख्यालों में खेया सा। उसे अब बांसूरी बजाने का आनंद कुछ अलग सा महसूस हो रहा था। कहते है न कि जब किसी पर दिल आ जाता है तो साज के सहारे दिल की आवाज निकलने लगती है। यही हुआ तेलंगा के साथ भी, उसकी बांसूरी की धून दर्दीली हो गयी थी जिसे सूनकर पशु-पक्षी, पेड-पौधे भी कोलाहल न कर शांति से बांसूरी की दर्दीली धून को मानो सून रहे थे। झरने तक अपनी प्यास बूझाने आए बाघ, चीता, भालू पानी पीकर मंत्रमुग्ध से वहीं ठिठक से गए थे।
निसंदेह संगीत की भाषा सशक्त होती है जो प्रकृति के सभी प्राणियों को आनंदित करती है। एक अद्वितीय दृश्य का सृजन हो चुका था वहां जब तेलंगा के बांसूरी के धून में कोयल ने अपनी कुहुकने का स्वर को इस तरह मिलाया कि ऐसा मालूम होता था कि कोई संगीतकार के बताए अनुसार लय और ताल को ध्यान में रखते हुए तेलंगा और पपीहे ने जुगलबंदी कर ली हो। तेलंगा भी इस जुगलबंदी का आनंद लेता रहा और उसे पता ही नही चला कि कब शाम हो गयी। उस रात न जाने क्यों तेलंगा को सिर्फ रतनी की याद आती रही।
तेलंगा की माॅं इससे पहले तेलंगा को कभी भी इतना उदास नहीं देखी थी। सूबह को तेलंगा की माॅं ने पूछा कि उसे क्या हुआ है ? तेलंगा सूबह में अपनी प्यारी गाय चंपा क दूध भी नहीं दुहा, चंपा के बछड़े जोगिया के साथ खेतों में दौड़ा भी नहीं। तेलंगा ने अपनी माॅं को रतनी के जलप्रपात में डूबने और उसे बचाने की घटना को विस्तार से सूनाया। तेलंगा की माॅं को समझने में देर नहीं लगी कि तेलंगा अब जवान हो गया है और रतनी को बचाने के दौरान उसे अपना दिल दे बैठा है। तेलंगा की माॅं ने तेलंगा को कहा, बेटा तुम्हारे बीमारी को मैं समझ गयी हॅंू, चिन्ता मत करो, बहुत जल्दी ही मैं इस बीमारी का इलाज कर दूंगी। तेलंगा को कुछ समझ में नहीं आया कि उसकी माॅं क्या कह रही है। वह बस टूकूर-टूकूर अपनी माॅं को देखता रहा। छह फीट का हट्ठा-कट्ठा तेलंगा अभी बिल्कुल बच्चे की तरह मासूम लग रहा था जिसे समझ में नहीं आ रहा था कि रोज के दिनचर्या से आखिर क्यंू विमूख होता जा रहा था वह ?
तेलंगा की माॅं उसी दिन रतनी के माता-पिता से मिलने रतनी के घर गयी और तेलंगा से रतनी की शादी की बात बिना लागलपेट के रतनी के माता-पिता के समक्ष रख दिया। तेलंगा से कौन लड़की शादी नहीं करना चाहेगी, रतनी के माता-पिता एक साथ तेलंगा की माॅं को कहा। रतनी के पिता गणेश खड़िया ने तेलंगा की माॅं को साफ शब्दों में कहा कि उसकी बेटी रतनी ने अवश्य कोई पुण्य पिछले जन्म में किया होगा जो तेलंगा जैसा होनहार युवक की पत्नी बनेगी। तेलंगा की माॅं शादी की बात तय कर चली गयी और कुछ ही दिनों में रतनी और तेलंगा पति-पत्नी बन गए।
तेलंगा के सानिध्य में भोली-भाली रतनी अब भोली-भाली नहीं रह गयी थी बल्कि अपने पति के अंग्रेजों के प्रति विद्रोही स्वभाव को अपनाने लगी थी। कंधे से कंधे मिलाकर रतनी अपने पति के साथ खडिया समाज को संगठित करने में व्यस्त हो गयी थी। तेलंगा अपने साथियों को गांव के अखाड़ा में कुस्ती करना, तीर चलाना, गदा चलाना सीखाता था तो रतनी भी गांव में बच्चों के लिए अखाड़ा चला रही थी, जहां छोटे-छोटे बच्चे को बड़ा होकर तेलंगा की तरह बहादूर और नीडर बनने की शिक्षा दे रही थी।
तेलंगा में गजब का नेतृत्व क्षमता थी और साथ ही तेलंगा एक अच्छा पुत्र, एक अच्छा पति, एक अच्छा समाज सेवक और एक अच्छा देश प्रेमी था। तेलंगा की गृहस्थी खूशहाल थी और खडिया समाज को खूशहाल बनाने में तेलंगा लगा हुआ था जिसमें उसका साथ उसकी प्रिय पत्नी रतनी देती थी। तेलंगा ने गूमला के आसपास के गांवों में अपना संगठन बनाया जिसका नाम तेलंगा ने ‘जूरी पंचायत’ रखा था जिसकी शाखाएं सोसो, नीमटोली, बघिमा, नाथपूर, दुन्दरिया, डोइसा, बेन्दोरा, कोलेबिरा, महाबुआंग आदि गांवों में बनायी गयी थी। अपने जूरी पंचायतों की शाखाओं में तेलंगा नियमित परिभ्रमण किया करता था। तेलंगा ने अपने अथक प्रयासों से न सिर्फ खडिया समुदाय बल्कि आदिवासी के अन्य समुदायों को भी अंग्रेजों के अत्याचार से अवगत कराया और उनसे प्रतिशोध लेने के लिए भावनात्मक और शारीरिक तौर पर तैयार किया। जूरी पंचायतों की बढ़ती लोकप्रियता से अंग्रेजों को काफी चिंता सताने लगी थी। तेलंगा संपूर्ण पूर्वी, पश्चिमी एवं दक्षिणी गूमला के क्षेत्रों में इतनी प्रसिद्धी हासिल कर लिया था कि अंग्रेज सीधा हस्तक्षेप करने से डरते थे इसलिए ‘बांटो और राज करो’ की नीति को अपनाते हुए उसी गांव के जंमीदार बोधन सिंह को रूपए का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया और तेलंगा के पीछे लगा दिया। 21 मार्च सन 1852 ई. को कुम्हारी गांव में अपने जूरी पंचायत की बैठक में तेलंगा व्यस्त था कि बोधन सिंह ने पुलिस को खबर दे दिया और अचानक पुलिस बैठक पर धावा बोल दिया और तेलंगा गिरफतार कर लिया गया तथा संपूर्ण इलाके में पुलिस दस्तों को खचाकच भर दिया गया ताकि तेलंगा के अनुयायी शांति भंग न कर सके और तेलंगा को कलकता जेल भेज दिया गया।
रतनी को जब पता चला तो वो अंग्रेजों की इस कायरता पूर्ण कृत्य पर आग बबूला हो गयी। अपने सात साल के बेटे बलंगा को अपने पीठ में बांधकर सभी जूरी पंचायतों का भ्रमण करने लगी और अंदर-अंदर अंग्रेजों से प्रतिशोध लेने के लिए समुदायों के लोगों को पूर्ण रूप से जागृत करने लगी।
अंग्रेजों को बोधन सिंह जूरी पंचायतों की सक्रियता की खबर पहुंचाता रहता था। तेलंगा के जेल में रहने के बावजूद उसके संगठनों की लोकप्रियता रतनी के प्रयासों के कारण कम नहीं हो रही थी। अंग्रेजों ने जैसा कि वे लोग भारत में करते रहे थे एक षड़यंत्र के तहत तेलंगा को एक दिन स्वत छोड़ दिया। दरअसल अंग्रेजों ने एक षड़यंत्र रचा कि तेलंगा को जेल से रिहा करके उसे गांव पहुंचने दिया जाए और एक दिन बोधन सिंह से उसकी हत्या करवा दिया जाए। इसी षडयंत्र के तहत तेलंगा को कलकता जेल से स्वत छोड़ दिया गया और जेल से छूटने के बाद तेलंगा सीधा गांव पहुंचा और पुनः एक बार शुरू हुआ जूरी पंचायतों की लगातार बेठकें और अंग्रेजों से लोहा लेने की कवायदें।
तेलंगा परंतु अंग्रेजों की तरह कायर नहीं था इसलिए अंग्रेजों के षड़यंत्र को समझ नहीं सका। बोधन सिंह उसके विरूद्ध मुखबरी भी कर रहा है तेलंगा ऐसा नहीं सोचता था क्योंकि वह खूद की तरह सभी को देशभक्त समझता था।
अपने षड़यंत्र को अंजाम देने के लिए अंग्रेजों ने बोधन सिंह को अकूत धन-दौलत का लालच देकर तेलंगा को रास्ते से हटाने की सूपारी दे दिया था। ईष्यालू और कायर बोधन सिंह सिसई के अखाड़े में जब तेलंगा 23 अप्रैल 1880 ई. को अपने शिष्यों को प्रशिक्षित करने के पहले प्रार्थना के लिए जैसे ही अपने झूके हुए सर को उठाया उसी समय झाड़ियों में छूपा हुआ कायर बोधन सिंह ने गोली चला दी जिससे एक देशभक्त आदिवासी योद्धा तेलंगा खड़िया की मृत्यु हो गयी। तेलंगा के शव को देखकर रतनी आहत तो जरूर हुयी परंतु आंसू नहीं बहाए। रतनी अपने जवान हो चुके बेटे बलंगा में उसके पिता की छवि देख रही थी। बलंगा अपने पिता की ही तरह नीडर, साहसी हट्ठा-कट्ठा छह फीट का नौजवान बन चुका था, उसने अपने पिता के शिष्यों को पहली बार संबोधित करते हुए कहा कि उसके पिता तेलंगा खड़िया की मृत्यु नहीं हुयी है अपितू वे शहीद हुए है और उनकी सहादत जाया नहीं जाएगी। बलंगा ने प्रण किया कि उसके पिता द्वारा शुरू किया गया आंदोलन का नेतृत्व अब वह करेगा और चुन-चुन कर अंग्रेजों को मौत की घाट उतारेगा।
रतनी की आंखें भर आयी थी, उसे जलप्रपात में डूबने से बचाने वाले तेलंगा की याद आ रही थी, जब तेलंगा ने उसे अपनी फौलादी बांहों में उठा लिया था और वो मरने से बच गयी थी। तेलंगा का शव यद्यपि गोली लगने के बाद भी बुलंद लग रहा था, बलंगा और तेलंगा के शिष्यों ने तेलंगा के शव को गूमला के सोसो नीमटोली ले गए और वहीं तेलंगा के शव को दफना दिया गया। बलंगा ने अपने पिता के कब्र पर एक स्मारक बनाया जिसे आज भी ‘तेलंगा तोपा टांड’ के नाम से याद किया जाता है।
राजीव आनंद
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