अगर आप इसे कविता ना भी समझो……!!
तकलीफ इस बात की नहीं है कि
बे-ईमानों से बेतरह घिरे हुए हैं हम
तकलीफ तो इस बात की है कि
इस भीड़ में कहीं-ना-कहीं हम खुद भी शामिल हैं !
तकलीफ इस बात की नहीं है कि
कि बेलगाम हो चुका यह हरामखोर भ्रष्टाचार
तकलीफ तो इस बात की है कि
हम समझ नहीं पा रहे हैं खुद की ताकत
और इस गहन समय की गहरी गंभीरता !
हम स्वयम ही दिए जा रहे हैं तरह की घूस
और स्वयं ही पीड़ा का स्वांग भी भर रहे हैं
हाँ यह स्वांग ही तो है कि
हममे से ही चुन-चुन कर जा रहे हैं वहां लोग
जो तत्काल ही बे-ईमान हो जा रहे हैं
हमें अब यह सोचना ही होगा कि
कहीं-ना-कहीं हमारे खून में ही कोई खराबी है
कि पलक झपकते ही नहीं हो जाया करता हरामी
खाता भी जाए और थाली में छेड़ भी करता जाए !
हमें अब सोचना ही होगा कि हमारी रगों में
शायद खून नहीं कुछ और ही बह रहा है !
तकलीफ इस बात की नहीं है कि
स्विस बैंकों में लूटे पड़े हैं हमारे इतने लाख करोड़
तकलीफ तो इस बात की है कि
यह बात एकदम से साबित होते हुए भी कुछ होने को नहीं है !
भ्रष्टाचार की बाबत हमारी चिंताएं
महज कोरी बातें हैं….अगंभीर गप्पें !
और ये गप्पें भी ऐसी हैं कि कभी ख़त्म होने को नहीं आती
टी.वी.के सामने कुरकुरे खाते हुए
किसी पान दूकान या चौराहे पर बतियाते हुए
किसी काफी हाऊस में चाय की चुस्कियों के साथ
हवा में हाथ घुमाते और हरामियों को लतियाते !
यह सब अब इतना ऊबाऊ हो चुका कि जैसे
हमारा होना ही फिजूल हो चुका हो ओ !
हमारे चेहरे पर हमारी आँख हैं अगरचे हम
तो भ्रष्टाचार हमारी खुद की नाक से छु रहा है
हमारी दोनों खुली हुई आँखों के ऐन नीचे
और बे-इमानी हमारी जीभ से टपक रही है
अनवरत लार की तरह
हम जो कहे जा रहे हैं लगातार भ्रष्टाचार के खिलाफ
वो बिना किसी अर्थ के महज एक बक-बक है
क्योंकि हमारा खुद का चरित्र भी कुछ
इसी तरह के गुणों से ही लकदक है
तकलीफ इस बात की नहीं है कि
इस सबके खिलाफ हम कर नहीं पा रहे हैं
तकलीफ तो इस बात की है कि
ऐसा करने वालों को हम अब भी
मंचों पर आसीन करवा रहें हैं
उन्हें अब भी फूल-मालाएं पहना रहे हैं
अपने स्वार्थ से वशीभूत होकर कहीं-कहीं तो
हम उनकी चालीसा भी बना-बना कर गा रहे हैं !!
अब तो यह लगने लगा है कि हमारी तकलीफ
दरअसल हमारा एक प्रोपगंडा है
किसी घोंघे की तरह अपनी खोल में दुबक जाने की
जान-बूझ कर की गयी एक बेशर्म कवायद
कि हमारी खाल भी बची रहे
और एक आन्दोलन का वहम भी बना रहे !!
तकलीफ इस बात की भी नहीं है कि
हमारे भीतर नहीं बचा हुआ कोई जूनून
तकलीफ तो इस बात की है कि
हम आवाज़ दे रहे हैं सबको कि आओ बाहर निकलो
और खुद किसी ना तरह की सुख-सेज पर रति-रत हुए जा रहे हैं !!
मुझे गहरी उम्मीद है कि हमसे कुछ नहीं है होने-जाने को
हम तो बस अपने-अपने दडबों में बंद बस चिल्ला रहे हैं
जैसे किसी ऐ.आर रहमान का कोई कोरस-गान गा रहे हैं !
तकलीफ इस बात की भी नहीं है कि
इतना कुछ होता जा रहा है हमारे होते हुए हमारे खिलाफ
तकलीफ तो इस बात की है कि
हम तो ठीक तरीके से इसे देख भी नहीं पा रहे हैं
जब ताल ठोक कर आ जाना चाहिए हमें ऐन सड़क पर
और लगानी चाहिए अपने हथियारों पर धार
और हो जाना चाहिए खुद के मरने को तैयार
हम किसी गोष्ठी में बैठकर
किसी फेस-बुक या किसी ब्लॉग में घुसकर
हल्ला-बोल….हल्ला-बोल चिल्ला रहे हैं !!!!
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