Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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यह जो इक दर्द है मेरे भीतर

 

जो रह-रह कर कसक रहा है
सिर्फ इक दर्द ही नहीं है यह दर्द
मेरे सुदूर कहीं भीतर से आती
मेरी ही आत्मा की आवाज़ है
यह जो दर्द है ना मेरा
सो वो लाइलाज है क्योंकि
इसका इलाज अब सिर्फ-व्-सिर्फ
इसके सोचने की दिशा में मेरे द्वारा
किया जाने वाला कोई भी सद्प्रयास है
मगर मेरे मुहं से महज इक
सिसक भरी आवाज़ निकलती है
और इन अथाह लोगों के शोर
के बीच कहीं गुम हो जाती है
कभी-कभी तो मेरे ही पास
लौटकर वापस आ जाती है….
मेरा दर्द और भी बढ़ जाता है
मेरे भीतर सिसकता रहता है
कुछ कर नहीं पाता ठीक मेरी तरह
और गुजरते हुए हर इक पल के साथ
दर्द बढ़ता जा रहा है विकराल होता
इस व्यवस्था को बदलने के लिए
इस बदलाव का वाहक बनने के लिए
इस बदलाव का संघर्ष करने में
मैं इक आवाज़ भर मात्र हूँ…
बेशक आवाज़ बहुत बुलंद है मेरी
मगर किसी काम की नहीं वो
अगरचे सड़क पर उतर कर वो
लोगों की आवाज़ बन ना जाए
चिल्लाते हुए लोगों के संग मिलकर
एकमय ना हो जाए….
और परिवर्तन की मेरी चाहना
मेरे कर्मों में परिवर्तित ना जाए
और बस यही इक दर्द है मेरा
जो अब बस नहीं,बल्कि बहुत विकराल है
मेरे भीतर छटपटा रहा है
हर वक्त और हर इक पलछिन
किसी क्रान्ति की प्रस्तावना बनने के बजाय
यह दर्द बस किसी कविता की तरह लिखा जाना है
और महज किसी कविता की तरह पढ़ा जाना है…!!

 

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