बस्ती बस्ती है अँधियारा
कैसे पाऊँ मैं उजियारा।।
आँगन आँगन उगे बबूल
देहरी देहरी चुभते शूल
स्नेहिल भाव हुए सब बोझिल
यहाँ न कोई हुआ हमारा ।।
छिनती है हाथों से रोटी
बिक जाती है बोटी बोटी
श्रम से कातर अगनित बचपन
नही किसी ने दिया सहारा ।।
आतंकित यह सारा जग है
आतंकी विषधर हर मग है
मानवता अब सिसक रही है
दानवता ने पांव पसारा ।।
***×***
राजेन्द्र प्रकाश वर्मा
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