चलने पर छिलते पाँव ।
पता नही कहाँ है ठाँव।।
तपती धूप
झेलें हम
क्या सुनायें
अपने ग़म?
मिले कैसे शीतल छाँव।
पता नही कहाँ है ठाँव।।
रिसता रहा
पसीना
लू में भी
है जीना
मौसम का अजीब है दाँव।
पता नही कहाँ है ठाँव ।।
उम्र भर
मांगे पानी
मुश्किल हुई
जिंदगानी
काग क्र रहे कांव कांव।
पता नही कहाँ है ठाँव।।
***×***
राजेन्द्र प्रकाश वर्मा
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