Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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लिखता हूँ आग उगलने की बात

 

लिखता हूँ आग उगलने की बात
फिर भी हैं लोगों के ठंढे हाथ।।

 

तन चुकी हैं हमारी मुट्ठियाँ
धधक रही हैं दिलों में भट्ठियां
करने को तैयार हैं हम घात पर घात
फिर भी हैं लोगों के ठंढे हाथ।।

 

सहने की सारी सीमायें टूट गयीं
आँगन की खुशियाँ हमसे रूठ गयीं
समय ने किया है हमसे विश्वासघात।
फिर भी हैं लोगों के ठंढे हाथ ।।

 

मुर्दों से हो गये हैं हम यहाँ
बदले कुछ ऐसे मौसम यहाँ
स्वाभिमान जगे तभी बनेगी बात।
फिर भी हैं लोगों के ठंढे हाथ।।

 

 

 

राजेन्द्र प्रकाश वर्मा

 

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