पीड़ा ने जब अंतर को छुआ था
तभी लेखनी से गीत पैदा हुआ था।।
विवशता से यों पराजित हो गया हूँ
जाने कहाँ मैं अपनापन खो गया हूँ
बस जीवन में धुंआ ही धुंआ था
तभी लेखनी से गीत पैदा हुआ था।।
आदमी को समझना नहीतन सरल
हर नयन में जब समाया है गरल
जीवन बना विषादमय कुआँ था
तभी लेखनी से गीत पैदा हुआ था।।
दर्द की मुझ पर बनी रही मेहरबानी
व्यथा की कलम से लिखता रहा कहानी
जीवन दुःख का दरपन हुआ था
तभी दर्द से गीत पैदा हुआ था।।
***×***
राजेन्द्र प्रकाश वर्मा
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY