Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अंग्रेजी में हो रहा, राजकाज श्रीमान

 

 

।।1।।
अंग्रेजी में हो रहा, राजकाज श्रीमान।
मुझको लगता मर रहा, तिल-तिल हिन्दुस्तान।
।।2।।
दिल अपने से पूछिये, क्या भारत आजाद।
गये फिरंगी किन्तु क्यों, अंग्रेजी आबाद।
।।3।।
महानगर की जिंदगी, चहुंदिशि भागमभाग।
आपाधापी का हुआ, स्वारथ से अनुराग।
।।4।।
अंधों में काना नहीं, बनता राजा आज।
बहुमत से चुनकर यहां, अंधा करता राज।
।।5।।
बिन स्वारथ दस्तक करें, किसी हृदय के द्वार।
निश्चय ही उस हृदय के, झंकृत होंगे तार।
।।6।।
शक्ति प्रकृति की है प्रबल, जीव सभी निरुपाय।
बिगड़ेगा जब संतुलन, उथल-पुथल हो जाय।
।।7।।
भूमंडल पर प्रकृति का, ऐसा रचा विधान।
तितली, अजगर, मोर सब, चितते नियम समान।
।।8।।
भले बने मानव सुधी, करे बुद्धि पर मान।
किन्तु प्रकृति के सामने, तृण के भी न समान।
।।9।।
पश्चिम का है फलसफा, पूरब के विपरीत।
उत रिश्ते सब गणित के, इत जन्मों की रीत।
।।10।।
बेटी मां का हृदय है, पिता हेतु वह नैन।
भाईमन धीरज धरे, बहना के मृदु बैन।
।।11।।
विद्वानों की चिंतना, का रंजक लालित्य।
बनता है लिपिबद्ध हो, जन-जन का साहित्य।
।।12।।
ऐश कर रहे देश में, मुट्ठी भर ही लोग।
बाकी आबादी यहां, नरक रही है भोग।
।।13।।
धन शत्रू अरु मित्र भी, धन ही रिश्तेदार।
धन ही है अब बन गया, नर्क-स्वर्ग का द्वार।
।।14।।
दूर-दूर दुख में रहें, सुख में आवें पास।
नाते-रिश्ते मित्र सब, हैं स्वारथ के दास।
।।15।।
धनाभाव सम्पन्नता दोनों धन के रोग।
आवत मन चाहत बढे़, जावत हिया वियोग।

 

राजेन्द्र सारथी

 

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