हे जमीं आसमां देख लो जरा
ये नज़ारा हमें दर्पण दिखा रहा है।
दो पल दो पल की ख़ुशी के लिए
इन्सान, इन्सान को खा रहा है !
किताबों के दो शव्द उठा कर अपनी
हंसी यूँ खिल खिला रहा है।
चाँद पर पग क्या रखा
खुद को मसीहा बता रहा है।
खोद कर अपनी जड़ें ये
मिटटी में उसे दबा रहा है
कैंसे यकीं करें खुद पर हम,
जब इन्सान को इन्सान खा रहा है
........रचना -राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
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