Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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डंक

 

 

मन साला एकदम छँटा बदमाश! इस पल आकाश तो अगले पल पाताल. न कोई गति- नियंत्रक और न कोई अवरोधक ही. जो ना सोच ले, वो ही थोड़ा. भगवान ही मालिक उस आगत समय का, जिसमें मन आदमी के माथे पर दृश्यवान होने लगेगा. सोचते हुए वह मुस्करा उठा.
'उठ प्यारे! बिस्तर त्याग और हो जा शुरू. देख, पूरा दिन तुझ पर आँखें गड़ाए है. उठ, इस दिन के काम आ. गृहस्थी को सींच और दफ़्तर को टिकटिकी दे. तेरे जैसे यूँ तो पता नहीं कितने गए-आए, मगर इसके बावजूद तू ग़लतफ़हमी में जी. सिंसियर होने की चटनी चाट. सफल गृहस्थ का ख़िताब भोग. उठ...उठ! अबे उठ!!'
वाशबेसिन पर झुके-झुके उसने मुँह धोया तो पाया की ऊँगलियाँ आचार्य वात्सयायन की शिष्य बनी हुई हैं. गाल एकदम चिकने. चेहरा स्वस्थ. परिवर्तन! ...हठात उसकी आँखें शीशे पर गयीं. यह चेहरा साला रात ही रात में कैसा स्वस्थ हो गया है रे! अरे! ...वह ख़ुशी से झूला. इस चमत्कार की ख़बर पत्नी को तुरंत देनी चाहिए.
पत्नी रसोई के बर्तनों से लड़ रही थी. इस छापामार-युद्ध में सीज़-फायर का इंतज़ार उसने किया. सीज़-फायर तो हुआ, मगर पत्नी ने उसकी तरफ देखा नहीं. "देखो...!" वह बोला. पत्नी ने अति प्रज्ज्वलनशील आँखों से उसके उत्साह को झुलसाया. और यह देखकर वह पथरा ही गया कि पत्नी के चेहरे पर काफी सूजन है. वह घबराकर दौड़ा और शीशे में अपना चेहरा पुनः जाँचते हुए उसने पाया कि सचमुच चेहरे पर स्वास्थ्य नहीं, सूजन है.
मन साला एकदम लुच्च -लफंगा पंछी. चेहरे सूजे क्यों-- इस सवाल को चोंच में दबाकर कब का उड़ गया! अब पता नहीं साला चंडूखाने की क्या-क्या ख़बरें लाएगा! हर मिनट तीन फैक्स भेजेगा. ज़हरीला कीड़ा काट सकता है...नींद कम आने की वजह से हो सकता है...शुगर बढ़ने का लक्षण हो सकता है...पत्नी का ब्यूटी - पार्लर से कोई एलर्जी ले आने का कारण हो सकता है...कल जो बाज़ार में पनीर-पकौड़ा और ज्यूस की चोरी-छिपे ख़ुराक ली थी, उसकी त्वरित प्रतिक्रिया हो सकती है...! देखा, मन है साला बहुत चालू!...अब तक दिन का एक कौर वह निगल चुका था.
बच्चों की नींद में शायद स्कूल का प्रिंसिपल, गेटकीपर और क्लासटीचर -- सब एक साथ कूद पड़े थे. वे घड़ी को देखते ही चीखने लगे. बच्चों की चीख-पुकार ने उसके मन के रास्तों में काँटे बिखेर दिए थे. प्रतिक्रियास्वरूप बच्चों को उसने और भी भयभीत किया. वे छल -छल रोने लगे. हालाँकि वात्सल्य रस को वैधानिक मान्यता प्राप्त नहीं, फिर भी उसने बच्चों के आँसू पोंछे. मगर रस-प्रभाव से बाहर आते ही वह स्तब्ध रह गया.
बच्चों के चेहरे भी सूजे हुए थे!
मन साला एकदम भूत! न पाँव, न परछाई! ख़बर लाया बुरी-बुरी. दफ़्तर के लिए तैयार होना मुहाल. पत्नी का मुँह सूजा यूं...बच्चों का मुँह सूजा यूं...ख़ुद उसका मुँह सूजा यूं...! शिकायतें इतनी कि जिन्हें मात्र सुनने-सुनाने के लिए शरीफ़ आदमी को जन्म लेने पड़ें पूरे बीस! ' भाग साला!' उसने डाँटा मन को.
'कोई तार्किक ख़बर दे न!' फिर कहकर मन को पुकारा, गुहारा.
मन साला फ़िलहाल व्यस्त . दफ्तर, ट्रैफिक की अराजक स्थितियों में. अपूरित आकांक्षाओं, दमित भावनाओं में. इन सब के बीच साला मन. खिलंदड़ी मचाता. तभी अति आवश्यक संदेश की 'पीं -पीं ' हुई और मन ने तार्किक ख़बर दी, "ततैयों का छत्ता बना है , बॉस घर में. फूँक दो."
ततैयों का छत्ता! मन साले ने धर दबाया फ्लैशबैक. बचपन के दिन. पीले और लाल ततैये. लाल से वह ज्यादा डरे, पीले से कम. ऐसा क्यों-- यह जानें मनोवैज्ञानिक. जब घर के कई लोग तीन दिनों तक सूजे-सूजे फिरे तो पिताजी ने तैयार की एक मशाल, और मुँह पर नकाब की तरह लपेटकर कपड़ा, छत्ते को लगा दी आग. ततैये साले बरबाद! कोई यहाँ मरा, कोई वहां. लाल थे.
अचानक उसने पाया कि पत्नी ने लाल रंग का सूट पहना हुआ है. बीच-बीच में पीली धारियां भी. उसे याद आई भभकती मशाल. चिड़-चिड़ जलते बर्र. तड़पते, अधजले.
मन साला एकदम खलकामी. दफ़्तर में बॉस की पीली शर्ट. लाल और पीले -- दोनों साले एक जैसे. वहाँ भी हाल वही कि काम करो तो भी सूजन और नहीं करो तो सूजन-सूजन. अंधेर सब जगह. न घर खुश न दफ्तर! न ट्रैफिक , न बाजार. न सरकार, न जमादार. न पत्नी, न प्रेमिका.न बिड़ला, न टाटा!... और यह मनहूस खबर बार-बार लाये साला मन! उसका ही मन और उसी की जान के पीछे! 'साले, मशाल से तुझे ही पहले फूँकूँगा.' ...धमकी से कुछ शांत हुआ मन. कहीं दुबक गया साला.
लेकिन दिमाग़ को भी तो मन की लाचारी! पल-भर में सौ बार जरूरत पड़े मन की. कागज़ी समस्याओं के समाधान के लिए मन को वह पुकारे बार-बार. पूछे सस्वर,'बता...बनाऊं एक मशाल, अति विशाल! जिस पर लिपटे हों सारे रिश्ते, कर्तव्य और संस्कार... और भक्क से जला दूँ? बता, मशाल से कितनी कर दूँ जीव हत्याएं! बता, मशाल क्या कुछ साध भी सकती है, सिवाय जलने-जलाने के! या बता, मशाल से जला दूँ अपने-आपको! या आँखें ही झुलसा लूँ, देख न सकें जो सूजे हुए मुँह!'
मन साला एकदम हरामी! वह पूछता जाये और मन एकदम चुप्पा. मन साला बताएगा भी क्या! उसे तो सब पता खुद ही. ततैया लाल हो या पीला -- काटेगा तो सूजन आएगी ही. तीन दिन . मियाद ख़त्म होते ही डंक की करामात गायब. पंचतत्वों की सूजन, पंचतत्वों में ही विलीन.कितना कुछ बिगड़ सकता है इससे किसी का. कैलेंडरों में भरे पड़े हैं दिन अंधाधुंध. आएँगे - जाँयगे. काटेंगे - सूजेंगे. फिर-फिर से प्रकृतिस्थ हो जायेगा सब कुछ. ऐसी-तैसी में जाये मशाल. रहें ततैये भी, सूजन ....और वह खुद भी. रहे गृहस्थी भी, दफ़्तर भी, ज़िंदगी भी. डंक निकाल सको तो निकाल दो. नहीं निकले तो उसे सह जाओ. दंश की उम्र ही कितनी-- तीन दिन!
मन साला एकदम चमचा.उसकी बात में हाँ मिलायी फ़ौरन.याद दिलाया फिर से बचपन का बचपना. पीले ततैयों की पूरी टुकड़ी का नल के नीचे वाली चौकी पर भिनभिनाना. भर-दोपहर जब घर के लोग सोते, वह अपने दोस्तों के साथ ततैयों से उलझा करता.बाँस की झाड़ू को फैलाकर, किसी बैठे ततैये को दबोचता और डंडी से उसके पृष्ठभाग को अहिंसक तरीक़े से दबा देता. इससे ततैये के शरीर से डंक बाहर आ जाता और ततैया खिलौना बन जाता. दोस्त की मदद से, ततैये के मध्य प्रदेश को बारीक धागे में बांधा जाता और फिर किसी बच्चे, बूढ़े अथवा जवान पर उस डंकहीन ततैये को छोड़कर , परमानन्द बटोरा जाता.
उसे लगा कि विष-भरे डंक निकाले जा सकते हैं. डंक सहे जा सकते हैं. दर्द और सूजन के बार-बार चढ़ने और उतरने का इन्तिज़ार किया जा सकता है. इस सब को सहा भी जा सकता है और कहा भी.
लगा, घर उसके लिए अब ततैयों का छत्ता नहीं रहा,वह नव-रस स्थल हो गया है. दफ़्तर उसके लिए यकायक आसान हो गया और ट्रैफिक मानवीय.दंशों की पीड़ा, कैलेंडर और घड़ी की तरह दीवार पर टँग गयी.उसे लगा कि वह यूं ही आनन्द फांकता रहे-- पीड़ा का, सूजन का, और डंकविहीन निरीह ततैयों के 'खिलौनों' का भी.
मन साला एकदम दस नंबरी. 'जीवन ऐसे ही चलता है, आचार्य!' बोला उससे. 'तेरी सूजन उतर गई?' उसने पूछा मन से और ढूँढने लगा अपने निकाले हुए डंक को.

 

 

 

राजकुमार गौतम

 

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